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________________ १४ परः पर्यनुयुङ्क्ते - [ शास्त्रवातसमुच्चय-०२ श्लोक १२ मूलम् - प्रतिपक्षस्वभावेन प्रतिपक्षागमेन बाधितत्वात्कथं तो शरणं युक्तवादिनाम् ? ||१२|| = · प्रतिपक्षस्वमावेन उक्त विपरीत स्वभावेन प्रतिपक्षागमेन उक्तविपरीतागमेन च यातित्वान् हि निश्चितम् एतौ उक्तस्वभावागमों, युक्तिवादिनाम् = युक्तिप्रधानवादिनाम्, न तु श्रद्धामाश्रवताम् कथं शरणम् कथमर्थमिद्धिम १ न कथंचिदित्यर्थः ॥ १२॥ , , + t कार्य के अहेतुक पक्ष में कार्य की उत्पत्ति में किसी हेतु की अपेक्षा न होने से उस का सार्वविक होना ही युतिसंगत प्रतीत होता है कहाकि ना तो थर सम्भव नहीं है किन्तु बोस ही है कि वह का ही हो, उपारकर साविक न हो। इसी प्रकार 'याग में होनेवाली हिंसा पापजनक नहीं होती। इस पक्ष का समर्थन करने के लिये मीमांसकों को भी कोई दूसरा प्रमाण नहीं मिलता, विवश होकर उन्हें यही कहना पता है कि "ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकाम यजेत स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को क्याष्टिोम पाग करना चाहिये। इस आशा का देववाक्य ही इस बात में प्रमाण है कि हिंसायुक्त भी याग से पाप का उदय न होकर स्वद पुष्प का ही उदय होता है ॥११॥ [ प्रतिपक्ष के होने पर स्वभाव - आगम भरण्य कैसे ? ] १२ श्री कारिका में स्वभाव और आगम की प्रमाणता के विरुद्ध प्रतिवादी का प्रश्न प्रस्तुत किया गया है, जो इस प्रकार है एक वाटी किसी एक स्वाभिमत पक्ष का समर्थन करने के लिये जिस स्वभाव में शासन का सहारा लेता है, मध्यवायी उस पक्ष के विरोधी पक्ष के समर्थन के लिये उक्त स्वभाव और उक्त आगम से विपरीत स्वभाव और विपरीत आगम को भी प्रस्तुत कर सकता है। मंसे चाक आदि नास्तिक कि यह कह सकते हैं कि किसी धनपतिको हिंसा से लोकसुखसम्यानक प्रर पत्र को प्राप्ति हो सकती है, असः सवयं अन्य प्रयास अनपेक्षित है, हिंसा का यह स्वभाव ही है या समझवार पूर्वपुदवों का यही कथन है कि हिंसा से सुख हो राप्त होता है, किसी प्रकार का अहित नहीं होता ।" तो इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा विरुद्ध स्वभाव और विरुद्ध आराम प्रस्तुत करने पर बादी द्वारा प्रस्तुत किये गये स्वभाव और आगम से उसके अभिमत पक्ष की सिद्धि किस प्रकार हो सकेगी ? जो बारी अामा को महत्व न दे कर युक्ति को ही प्रधानता प्रधान करते हैं। स्वभाव और आगम से उसे सष्ट किया जा सकता है, नियुक्ति के बिना किसी भी पक्ष को उनके गले के कसे उतारा जा सकता है ? स्पष्ट है कि स्वभाव और आगम के बल पर युक्तिवादियों के समक्ष किसी पक्ष का समर्थन कपमपि नहीं किया जा सकता ॥ २
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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