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स्या का टीका-हिनी विवेचन ]
मूखम-प्रतीत्या बाध्यते यो यत्स्वभावो न स युज्यने ।
वस्तुनः कल्प्यमानोऽपि वह यादेः शीततादिवत् ॥१३॥ ममाधत्ते-गद = यस्मान् कारणात् । यः बभावः प्रतीत्या = प्रमाणेन, चाप्यते स कस्थ्यमानोऽपि तस्वमावस्येन बन्यादेः शीततादिया जात्याऽऽपायमानोऽपि वानः सबमावो न युज्यतेन सतर्कविषयो भवति । तथा म 'बहन्यादेयदि उष्णत्वादिस्वभावः स्पात् , शीतवाद्यपि स्याद् इतिवत् 'हिमादेगंधधर्मजनकत्वादिस्वभावः स्याद् , धर्मजनकस्वापि स्याद्' इति न बाधमिति भावः ॥१३ । ।
मूलम्-बहने शीनाम्पमस्येय, तत्कार्य किं न दृश्यते ।
दृग हि हिमासन्ने, कामिनी स्वभाषतः ॥१४॥ पर आर-बहनः शीतत्वमस्त्येव - स्वाभाविकमेव मृगष्णिकादिवद । नत्राइ-यदि प्रमादुपलभ्यमानमपि शीतत्वं वशिस्वभावः, तदा तरफार्य = तत्सोन गेमाश्वाविर्भावादि, किं न दृश्यते ? | पर आइ-हिनिश्चितम् । हिमासन्ने वही, शीतकार्य रोमाचादि दृश्यते, तत्राचार्य आह-इत्थं कथम् । हिमामान एय बहिः शीतकार्य जनयति, मान्यदा' इनि कथम् ।। पर आइ-स्वभावतः, यथा दण्डादेश्यकादिसंयुक्तस्यैव कार्यजनकत्वस्वभावः, तथा यह नहिमामन्त्रम्यव गेमानजनकत्वस्यभाय इत्यर्थः ॥१५॥
[ प्रमाण से बाधित हो वह स्वभाव कल्पनायोग्य नहीं ] १३ वो कारिका में पूर्व कारिका में उठाये गये प्रश्न का समाधान किया पया है, जो इस प्रकार है
को म्यभाव लिप्त अस्तु में प्रमाण से बाधित होता हो वह उस वस्तु का स्वभाव नहीं माना जा सकता, जैसे यदि यह सामान किया जाप कि विस प्रकार जण स्पर्श अग्नि का समाव है उसी प्रकार पनि स्पा को मी अग्नि का स्वभाव होना पाहिले, क्यों कि उष्ण और शरत बोनों हो पशजातीय है. और इस में कोई तर्क नहीं है कि जिस प्राति का एक पदार्थ किसी वस्तु का स्वभाव हो उसो जाति का दूसरा पचास का स्वमापन हो तो इस आपाबकतर्फ पीतस्पर्श अग्नि का स्वभाव नहीं बन सकता, क्योंकि अतिशीत स्पेशे प्रत्यक्ष-प्रमाण से बाधित। ठीक उसी प्रकार यविया मापारन किया नाय कि प्रभमननकस्व यदि हिसा का स्वभाव है तो धर्मजनकत्व को भी हिता का स्वमाव होना चाहिये, क्यों कि अपमं और धर्म मोनों हो भदष्ट है, अतः इस में कोई तर्क नहीं है कि रिसा में अधर्मरूपमा बनश्वस्वभावही और धर्मरुप दसरे सष्ट का
कृष्ट का जनकक्ष स्वभाव महो.-तो इस आपावकत से मीधर्मजनका हिसाका स्वभाव नहीं बन सकता, क्योंकि महापाचमान स्वभाव आगमप्रमाण से बाधित है। निटक मह है कि जैसे प्रस्पक्ष बाधित होने से शीसस्पर्श अग्नि का स्वभाव नहीं होता उसी प्रकार मागम बाधित होने से धर्मजनकस्य हिंसा का स्वभाव नहीं हो सकता | १३|