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________________ [शा मा समुच्चय-०२-मो० १५ एतदेव दृष्टान्तेन दृढयतिमृलम्-हिमभ्यापि स्वभावोऽयं नियमाद यहि सन्निधौ । करोति वाहमित्येवं घहन्यादे. शीतता न किम् ? ।।१५।। हिमस्याप्ययं स्वभावो या नियमात अवश्यं, चहिसाधौ पहिलममीप एप, दाई करोति, सामीप्य एवायम्कान्तयन् नागदमनीयत कार्यकारित्वाद् , इनि हेतो, एवं हिमस्थ दाइजनकत्यवत् , बहन्यादेः शीतता न कि पकिं न स्वभावः ॥१५॥ [परिन शोत है-पूर्षपक्ष ] १४ पो कारिका में पूर्व कारिका में किये गये समाधान का वावी द्वारा प्रतिवाद किया गया है, जो इस प्रकार है समो कभी अग्मि में भी शीता को अति होती है अत: जसे मृगतृरिणका में जल की वृद्धि होने से बुद्धिकाल में जल का अस्तिवमहतों को मान्य है, बसे हो अगन में शीतस्पर्क को बुद्धि होने से अग्नि में भी उसका अस्तिस्व माम्म है. इस प्रकार शीतस्व अनि का स्वाभारिक झोपर्म है। यह प्रश्न उठामा कि.ग्नि में शोहरम का उपसम्म मममूलक है, और यदि भ्रम से अपलभ्य माम बस्तु का मो अस्तित्व माना जायगा तो बाग्नि के सम्पके से' शोतपर्श को अमुभूति रोमाका नाम आधि काप भी होना चाहिये-अवसरोचित नहीं है क्योंकि हिम के समिधान में अग्मि के सम्पर्क से ज्ञातानुभव और रोमान अदम आदि कार्य का होना समान्य है। यह प्रश्न भी उठाना कि यसि गीतस्य अग्नि का स्थाभाविक धर्म है तो हिम के सन्निधाम में ही अग्निसम्पर्कले उक्त कार्य क्यों होते है. हिम के अमनिधान में भी गयों नहीं होते ? उचित नहीं है, क्योंकि ये बातें के स्वभाव पर निर्भर होती है अत: जैसे चावि से संयुक्त व आदि काही घरगनकर स्वभाव होता है, केवल पप आदिका महाँ होता बसे हिमसग्निहित अग्नि का हो शीतकार्यजनकत्वस्वभाव है बस तिन का नहीं। इस समाव के कारण ही केवल अग्नि से शोत का माय न होकर हिमालय अनि मे हो होता है |॥१४॥ (हिम के दृष्टान्त से अग्नि में शेस्म का समर्थन ) पूर्व कारिका में कही गयो बात को हो १५ वी कारिका में हटान्त द्वारा पुष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है मैसे अपकारतमणि समीपस्म ही लौह का पाकरण करता है और मागबमनो समीपस्थ हो नाग का दमन करती है. उसी प्रकार अनि के समीप में होहीम साह का अाक होता है, अग्नि से पूर रत् कर वाह का जनक नहीं होता, तो फिर आंगन के समीप में ही बाह का जनक होने पर भी जसे वाहजनक हिम का स्वभाव से ही हम मनिषाम में हो शीतकाय का मनन करने वाले अग्निका पॉस्म समाव क्यों नहीं हो सकता ? उस में विधायका क्या अबसर है ||
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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