________________
स्या० ० टीका-हिन्दी विदेवन ]
अनोत्तरमाह
मूलम् व्यवस्थाभावको ह्येवं या स्वबुजिरिशी । कार्यं नत् स्वतस्तत्स्वभावतः ॥ १६॥
सालोटा
=
"
r
एवम् उक्तरीत्या व्यवस्थाभावनः सुम्पहूनियामकाभावात हि निश्चितम् या इह विचारे, ईणी स्वभावान्यथात्वकरूपनात्मिका, स्वद्वृद्धिः सा लोटात पाषाणाव समीपस्थेत स्ववर्यक्रमात् तथा अस्य लोष्टम्य यत्कार्यम्, अभिघातादिकम्, तत्त्वतः सकाशात् लोष्टसमीपस्थस्य तब तत्स्वभावतः = लोटस्वभावात् ॥ १६॥
=
►
1
+
ततः किम् ? इत्याह-
मूलम्-एवं सुबुद्विशुन्यन्यं भवतोऽपि प्रसज्यते ।
[ १
अस्तु चेत् को विधादो नो वुशून्येन सर्वधा ॥१७॥
=
!
एवं लोम्वभावस्ये, भवनलोष्टवत् सुबुद्धिशून्यत्वं = मध्यम्बुद्धिरहित, ज्याह-अस्तु न्यायानुगतं तत्स्वभावन्यमिति चेत तदा सर्वथा त्रिशून्न भवता सह नः अस्मार्क, को fears: 2 एवं चाster नियतपूर्ववर्तिनो हिंसादेरेव रोमाञ्चादिकार्यसम्भवे नमःतस्य लग्न्यथासिद्धत्वात् न तज्जनकत्वं न वा तदनुरोधेन शीतस्वभावत्वमिति प्रकृतेऽप्यर्थं व्यवस्था मावनीया |
1
अथैवं कारणत्वस्य स्वाभाविकत्वे नीलादियत् साधारण्यं स्यादिति चेत् स्यादेव सस्तन प्रतीयमानत्वरूपम् अन्यग्रहानधीनग्रहविषयत्वरूपमपि तद् हेतु शक्तायस्येव,
,
P
[ अग्नि शोत होने पर प्रतिप्रसङ्ग- उत्तरपक्ष ]
'शय अधिन का स्वभाव है' इस कथन का उत्तर देने के लिये १६ वो कारिका की रचना हुयी है। अर्थ इस प्रकार है:
जिस प्रकार समीचीन नियामक के अभाव में भी अति के सामीप्य मात्र से हिम में वाकव स्वभाव और हम के सामीप्यमा से अग्नि में हस्यस्वभाव को कल्पना आप करते हैं, उसी प्रकार यह कल्पना निरूप से पाचाण को भी होनी चाहिये, क्योंकि सामीप्यमात्र से ही यदि एक बस्तु का स्वभाव दूसरी वस्तु में संक्रान्त होगा तो आप के समीपस्थ पाषाण में आप को वृद्धि का भी सक्रमण आवश्यक है। इसी प्रकार पाषाण से होने वाले अभिघात आणि कार्य आप से भी होने चाहिये, क्योंकि पाषाण के सनिधान में उस के स्वभाव का संक्रमण आप में भी होना अनिवार्य है ||१६||
३