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स्मारक टीका- हिन्दी विद्वेषन ]
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उक्तं च- कः कण्टकानां प्रकरोति ययं विचित्रभावं मृगपक्षिण च स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रसः ॥ १॥ इति ॥६०॥ ॥ उक्तः खभाववादः ॥
की आपति नहीं दी जा सकती' तो इस कल्पना की अपेक्षा सो यही मानना उचित है कि बीज मोरूप से अकुर का जनक नहीं होता अपितु विलक्षण बीजत्व रूप से अर्थात अंकुरानुकुल अपनी परिणतिरूप स्वभाव से जनक होता है, जिस समय अंकुर की उत्पत्ति होती है उससे दूर पूर्व में गल परिणति के न होने से पूर्व में मकुर को उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
[ सहकारीचक को कल्पना अनावश्यक ]
वि यह कहा जाय कि मंकुशेपायक वीज में सहकारिधक को अतिशय काषायक सो स्वभाषाको को भी मानना पड़ेगा, क्योंकि अतिशयोन बीज को अकुर का अनक मानने पर सह कारिचक के सधान से पूर्व भी अकुर की उत्पत्ति को आपत्ति होगी. सतः जब सहकारिवक की अपेक्षा स्वभाववाद में भ आवश्यक है तब तो विलक्षणत्व से ऋण की कल्पना भरवश्य है. क्योंकि से भो योज को अंकुर का जनक मानने में कोई मापत्ति नहीं हो सकती-स यह ठीक नहीं है क्योंकि जो जिस कार्य का उपादान माना जाता है उसमें प्रशिक्षण नये नये परिणाम होते रहते हैं. और उन परिणामों स नये गये उपाय परिणामों की उत्पति भी होती रहती है। अम पूर्व उपादान परिणामों को उत्तर होने वाले सतत उपाय परिणामों के प्रति कारण मात से स्वभाववाद में मारक की कल्पना अनावश्यक हो जाती है। किन्तु उपादान को लोकसिद्ध सामान्यरूप मे उपादेय का कारण मानने पर पूर्वोत आपसि का परिहार सहकारिक को कपमा के बिना नहीं हो सकता, अतः स्वभाववाद को स्वीकार करना ही उचित है। स्वभाववाद में उबल ह उपपरिणाम और उपादेय परिणामों में हेतुहेतुमद्भाव मानने से उस पल में कालवा के प्रवेश की आशंका भी समाप्त हो जाती है ।
( कार्य से कारणानुमान के भंग की प्रापति का समाधान )
उक्त व्यवस्था स्वीकार करने पर यह प्रश्न हो सकता है कि का जो चरम अणात्मक परिणाम होता है उससे अंकुर का प्रथम अणात्मक परिणाम ही उत्पन्न होता है द्वितीय तृतीय आदि परिणामों की उत्पति उससे नहीं होती अतः उपादान के क्षण परिणामों को उपादेय के क्षणपरिणामों के प्रति तत्तदृष्यतित्व रूप से हो कारण और कार्य माना होगा क्योंकि यदि अनुगत रूप से उनमें हेतुहेतुमान की पना को जायगी तो जिस द्यावृति से उनका अनुगम किया जायगा उसके शरीर में उन क्षणों के प्रवेशक्रम में विमान होने से महान गौरव होगा, और तदन्यपि सेतुमाव मानने का दुष्फल यह होगा कि जातीय कार्यकारण के अनुमान का मङ्ग हो जायगा क्योंकि प्रनुगत रूप से हेतुहेतुमद्भाव न होने के कारण तज्जातीय कार्य में कार की अनुमापकता में कोई प्रयोजक न होगा" किन्तु यह प्रश्न स्वभाववरवी के लिये बड़ी सरलता से समाधेय है, वह इस प्रकार कि उत्पादक बीजक्षणों में तथा उत्पाद्य घड़कुरक्ष में परस्पर में अत्यन्त साहश्य होता है जिस से उनका साय तिरोहित रहता है अतः सह कुर क्षरणात्मक कार्य से सराबीजक्षणात्मक कारण का अनुमान होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि