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________________ ७६ ] [ शाम मुरलय न. २. शो-६० जनयत् । 'सहकारिलाभा-ऽलाभाभ्यां हेतोः कार्यजनना- 5जनने उपपत्स्य से इमि पेन ? न, सहकारिच कानन्तर्भावेन विलक्षणवीजन्वेनैवाङ्करहेतुत्वौविस्यात् । न च सहकारिचक्रस्याऽतिशयाधायकत्वं त्वयाऽपि कल्पनीयम् , इति तस्य तत्कार्यजनकत्वकम्पन मेयोचिमिनि काम : पूर्व-पूर्वोपादानपरिणामानामेयोत्तरोत्तोपादेयपरिणामहतस्मात् , अन एव कालबादाऽप्रवेशान् । नच घरमाणपरिणामरूपीजम्याऽपि द्वितीयादिक्षणपरिणामरूपाइराजनकन्याद् व्यक्निापशेतमवलम्ब्यय हेतु हेतुमदानी वाच्यः, अन्यथा ब्यापतिविशेषानुगतप्रयमादिचरमपर्यन्ताकुरक्षणान् प्रति च्यातिविशेषानुगतान चरमवीजक्षणादिकोपान्त्याइकुक्षिणाना हेतुत्वे कार्यकारणतावनवेदककोटाचेकक्षणप्रवेश प्रवेशाग्यो विनिगममानिसलात । नया न तज्जातीयाव काशं नज्जानीयकारणानुमानभङ्गाप्रमशः इति वाच्यम् , मारश्यनिहित्यसदृश्यनाऽजकुरादिना तादशमीजादीनामनुमानभयान : प्रपोग-प्रयोजन भावमय च विपक्षधाभनय न्य जागरूकत्वादिति । अधिकमध्यात्ममनपरीक्षायाम् । ततः ग्वभाव हेतुकमेव जगदिति स्थितम् । [ समान उपादान से विविध कार्यों के अभाव की प्राप्ति का प्रतिकार ] यदि यह वाहका की नाय कि- मिट्टी से घर शराब मावि विविध पात्र एवं विभिन्न प्रकार के खिलौने आदि अनेक प्रकार के काय उत्पन्न होते हैं. स्वभाववाब में मिट्री इन सभी कार्यों को अपने स्वभाव से हरे उत्पन्न करेगी अतः उसके समाज में कोई वलय न होने से उससे उत्पन्न होने वाले कार्यों में भी वलक्षण्य न हो सकेगा --तो यह मामला उचित न हो सकी. क्योंकि स्वभाव का अर्थ स्व का कार्य के अनुफूल परिणत होना अतः प्रत्येक वस्तु अपने कार्य को स्वभाव से उत्पन्न करती है, इसका अर्य होता है कि प्रत्येक वस्तु सतत कार्य के अनुकूल परिणाम पक्षण करके समान कार्य को सम्पन्न करती है और वस्तु का यह परिणामहण उस बातु के अधीन ही होता है। अनः मिट्टी से जितने काम उत्पन होते है उन सभी के उत्पासनानुकूल अलग अलग परिणति उसमें होती है. उन परिणतियों में बंप होने से उसके कार्यों में भी विलक्षणता होती है। अत: मात्र से बस्तुको कायोरपायक मामले पर रस बरस से होने वाले कार्यों में समय की अमुषर्षात का मापारा नहीं किया जा सकता। किस वस्तु में किस कार्य के अनुकूल परिणात होती है, इसका मिवय तो उR बस्तु से होने वाले कार्यों से ही हो सकता है। [ बीजस्य की अपेक्षा अंकूरानुकुलपरिणतिस्वभाव से कार्योत्पाव में नौचित्य ] बत्तु को कार्यानुफुलपरिमात रूप अपने स्वभाव से ही कार्य का उत्पावक मानना आवश्यक मो है, अन्यथा रिसे अपने लोकांस स्वरूप हौकार्य का पाक माना जायगा तो से नियत समय के पूर्व भीरकुरकी उत्पत्ति की आपत्ति होगी। इस श्रापत्ति का परिहार करने के लिये यदि वझकारिसभिमान की अपेक्षा मामकर यह कहा जाय कि-'बीज अपने लोकसित रुप बीजत्यसे हीरकाकारण है किन्तु अंकुरका उत्पावन वह तमो कर सकताअकरके अन्य सभी कारणों का भी उसे सविधान प्राप्त हो, अतः अन्य कारणों के असन्निधान के समय उससे अंकुर के
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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