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________________ स्या टी और हिन्दी विवेषन ] अनस्वभावात-तत्म्वभाषभिचात , तत्स्वभावरदिनाद् या तदभावे अधिकृतकार्योत्पादे 'अट्री क्रियमाणे' इति शेषः, असिंप्रमजोऽनिष्टप्रसङ्गः अनिवारित: अबाधितः । कुतः ? इन्याह- तुल्येममाने, तत्र तत्स्वभावत्वे सति, मृदा कुम्भ एव जन्यते न पटादीति अयुक्तिमत् नियामकहितम् । ननु नातत्स्वभावत्यं सज्जननप्रयोजकमुच्यते येनेयमापत्तिः संगठनते, किन्तु सामग्रीमेव कार्यनिका व मः अश्वमाषस्य च पत्रित प्रति स्वरूपयोग्यतय न इति को दोषः । ति चेत् ? ___ अत्र बदन्ति-अन्नद्रस्वाव स्वमाघ एव कार्य हेतु, न तु पाह्यशारणम् । न च मृत्यमावाऽविशेषाङ्क घटादिकार्यायिशेपप्रसङ्गः 'स्वस्य भावः कार्यजननपरिणतिः' इति स्वभावार्थत्यात् । तस्याश्च कार्यकव्यङ्गयत्वान ! न येदेषम् , अकुरजननस्वमार्य बीजं प्रागेाऽर और पश्लि अवमान पाकानुकूल स्वभाव से वन्य होने से नहीं पकता। अत: कार्य को प्रम्य तु. जन्य मानन पर दंग में पाक और नवाब के पाकामायका मानना पडेगा । अतः कायों के जाम में फापचार के निवारणार्थ जन स्वभावजन्म मानकर स्वभाषाधीन मानना ही पायसंगत है ।। ५॥ [फारणसामग्रीयादीपयक्त धापत्ति का समाधान] ६. कारिका में स्वभाववाद को हल करने के लिये समावधान के विरोधी पक्ष के बाधक का प्रतिपावन किया गया है अचंदन प्रकार है बालभाच ते अर्थात् ताजमनानुकूल स्वभाव से शूण्य होता है उस से यषि कार्य की उत्पत्ति मानी बारगी तो इस अतिप्रका -कि मिट्टी आदि से घट आदि की उत्पत्ति के समान पट आदिको मी उत्पति होनी चाहिये क्योंकि जापापक में कार्यजमानानुकुल स्वभाष की अपेक्षा न होने में मिट्टी घट पर आदि सभी कामों के लिये समान है-वारगम हो सकेगा फलतः घर और पट दोनों के प्रति मिट्टी के समान कामे से मिट्टी से घर की ही उत्पति हो, पट की न हो'- पह मिपम युक्तिहीन हो जायगा । यदि यह कहें कि यह दोष असरस्वभावत्वको सदुस्पति का प्रपोजक मानने पर ही हो सकता है. पर हम पहनहीं मानसे, हम तो यह कहते हैं कि-कसी पवाथ को किसो काये का उत्पादन करने के लिये उस पवार्थ में उस कार्य के जननानुकाल स्वभाव RTनमे की आवश्यकता नहीं है। हा प्रमहोगा कि किस कापं की उत्पत्तिका प्रयोजकश्या होता? ससम्बाम में हमारामत कितत्तत् कार्य को सामग्री-अति सत् कार्य के समी कारणों का विधान ही तसात कार्य की उत्पत्ति का प्रयोजक होता है। अतः स्वभाववार को स्वीकार करने पर भी उपत प्रापति नहीं हो सकती तो इसके उत्तर में स्वामी का पह कहना है कि स्वभाव असा होता है और कारणान्तर का सहयोग बाहिरजोता अतः मिट्टी को अपने स्वावसेही पट का उत्पारक मानना उचित है. बहिरण की सहायता से नहीं।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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