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हेत्वन्तरे कामचारमेत्र स्पष्टयति
(सू०) -न विनंह स्वभावेन मुनू गपतिरपीष्यते । तथाकालविभावेऽपि नाम्वमावस्य सा यतः ||१९||
| शा०पा० समुच्चय स्त० २ श्लो० ५६
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जगति स्वभावेन विना तथाकालादिभावेऽपि प्रतिनियतकालय्या पाशदि साधिपतेः त्यायतोऽश्वभाषस्य कङ्कदुकस्य, सापक्तिः न भवति । न मा विलक्षण निसंयोगादिकं नास्तीति वक्तु शक्यते, एकच क्रिपया ततदन्यवसंयोगात् । न चाष्टम्यान् तदयाकः दृष्टसाद्गुण्ये तत्पश्यायोगान् अन्यथा इण्डनुनमपि चक्रं न भ्राम्वत् । तस्मात् स्वभाववैपम्पादेव तदपाकः, इत्यन्यत्र कामचागत् रूपभाव एवं कारणमिति पर्ययमन्नम् ॥५९॥
उक्तदायैव विपक्षे बाधकमाह
(० - अमत्स्वभावात्
तद्भावेऽतिसङ्गोऽनिवारितः
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तुल्ये तत्र मृदः कुम्भां न पदात्ययुक्तिमत् || ६०||
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[ स्वभाव के बिना कटुकादि का पाक नहीं होता ]
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५८ व कारिका में पूर्वकारिका वर्णित स्वभावाश्णता को हो पुत्र किया गया है सभी भाष कार्य अपने या अपने उपादान के स्वभाव के बल पर बिठाए भरकार प्रकार आदि से नियत हो कर ही अपने अपने साथ में अवस्थित होते हैं। स्वभाव में अवस्थित होने का अर्थ है स्वभाव करे अभिष्पाप्त कर रहता क्योंकि 'स्वभावे तिति' में स्वभाव के साथ लगी सप्तमी विभक्ति "तिलेषु म' में तिल सभ्य मे लगी सप्तमी विभक्ति के समान अभिव्याप्ति अर्थ को बोधक है। भावों का नाश भी उनके भाव से हो नियत देश काल में ही होता है, क्योंकि ये इच्छानुसार स्वतन्त्र न होकर अपने स्वभाव के प्रति पर होते हैं ५१ व कारिका में कार्य को स्वभाव से मित्र हेतु से अन्य मानने पर कामचार की आपत्ति बस ये कहा गया है कि इस संसार में मूंग की दाल में मूंग का पाक भी स्वभाव के विना नहीं होता, क्योंकि जिस वस्तु में पकने का स्वभाव नहीं हैं यह काल तथा कारणान्तर का व्यापार आदि होने पर भी परिपक्व नहीं होती, जैसे अश्वमाच पथरिले उस में वोकाल तक अग्नि का विलक्षण संयोग होने पर भी उसका पाक नहीं होता। अष्टके से का पाक नहीं होता' यह कहना उचित नहीं हो सकता, क्योंकि दृष्ट सभी कारणों का सन्निधान रहन पर अदृष्ट के अभाव में कार्य को अनुत्पति नहीं देखी जाती. अन्यथा यदि ऐसा हो तो दह वण्ड से बल के साथ पत्र को बसाने पर भी कभी उसे नहीं बनना चाहिये, अण्दवश उस में धन का प्रतिवन्ध हो जाना चाहिये पर ऐसा नहीं होता। अतः यहां माममा विसंगत प्रतीत होता है कि मूंग अपने स्वभावा पकता है