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स्या ३० टीका-दिधीविवेचन1 ]
पूर्व षोडशकपदेन पञ्चतन्मात्र-कादशेन्द्रियग्रहणम् , अग्रे तु पश्चमहाभूतेन्द्रियग्रहामति विशेषः ॥१८॥
इममेव क्रममाहमूलम-प्रधानान्महतो भावोऽहंकारस्य तमाऽपि च । __ अक्षान्मात्रगस्थ तन्मात्रा भूनसंहांतः ॥१९॥ मशानात्-प्रकृतितस्यात् , महतः द्वितस्वस्य, भावः उन्पत्तिः अभिव्यस्तिर्ण, ततोऽपि घ, अहकारम्प भामहत्युनत्राप्यनुपम्यने । 'सनोऽपि' इत्यूनग्नाऽऽवय॑ते, तमोऽपि अकागदीप, अक्ष-सन्मानषगरण एकादशेन्द्रिय-पञ्चमहाभूतान! ( तन्मात्रा) भावः, सन्मानानजात्यपेक्षयकवचनाद पत्रम्यान्माभ्यः भूनसंहतिः पश्चमहाभूतानां भाषः ॥१६॥
स्थूलकार्यमधिकृत्याहमूलम-घटसाप पचिटयाविपरिणामसमुधम् ।
नात्मन्यापार किश्चिशेष| लोकेऽपि विद्यते ॥२०॥ घटायपि स्थूलकार्यजातम् , पृथिव्यादीनां मृदास्मिकाना परिणामात् विलक्षणसंयोगादिपरिणामात् ममद्रय उत्पमिर्यस्य तत् , परिणामान्तराभ्युपगमात् । विशेषमाइ-तषां:
प्रथमवर्ग में केवल मूल प्रकृति का समावेश होता है । वितीयवर्ग में महत् नत्य, अहंकार एवं पंचतन्मात्र का समावेश होता है। तृतीय वर्ग में पंचमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियों का समावेश होता है। चतुर्थ वर्ग में केवल पुरुष का समावेश होता है।
"प्रकृतेमहान इस कारिका में पाये षोडशक शब्द से पश्चतन्मात्र और एकादश भय का ग्रहण एवं "मूल प्रकृतिः इस कारिका में प्राये पोशक शब्द से पामहाभूत पोर पारह इन्द्रिय का ग्रहण अभीष्ट है यह ध्यान में रहना चाहिये ।।१८।।।
[प्रधान-महत् अहंकार- इन्द्रियतम्मान-पञ्चभूत का क्रम] कारिका १६ में मात्र प्रावि तेईस तस्यों को उत्ससि का वही कम स्फुट किया गया है जिसका संकेत ईश्वरकृष्ण ने अपनी 'प्रकृते महान ०' इस कारिका में किया है। इस कारिका का अर्थ प्रति सुगम है जैसे-प्रधान प्रकृतितस्व से महत-अद्धितत्व की उत्पत्ति प्रषवा अभिव्यक्ति होती है, और महत तस्व से पहंकार को, अहंकार से प्रक्ष.-मारह इन्द्रिय और पंचतन्मात्र को, एवं पंचतामात्र से पंचमहाभूतो को उत्पत्ति या प्रमिष्यविस होती है। कारिका में 'तन्मात्र शब्द से एकवचन बिमति का प्रयोग हमा है। वह तन्मात्र संख्या कीष्टि से उचित न होने पर मी, तन्मात्रत्व जाति की रष्टि से उचित है क्योंकि पांचों तन्मायों में तन्मात्रय नाम को एक जाति-एक अनुगत धर्म रहता है ॥१६॥
[साक्यमत में प्रारमा व्यापारशून्य है ] कारिका २० में स्यूल कार्य की उत्पत्ति और प्रात्मा के प्रकारणव का उल्लेख है। कारिका का मर्थ इस प्रकार है