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________________ ---- -- ६] [शा. बा. समुजषय स. ३-श्लोक १८ सन्मात्रेग्यः पञ्चमहाभूतान्युत्पद्यन्ते । तथाहि-शब्दतन्मात्रादाफाशं शम्दगुणम् , शब्दसन्मात्रसहिसात् स्पर्शतन्मात्रा वायुः शम्द-स्पर्शगुणः, शब्द-स्पर्शतन्मात्रसहितापतन्मात्रात्तेजः शब्द-स्पर्शरूपगुणं, शम्दस्पर्शरूपतन्माप्रसहिताद्रसतन्मात्रादापः शन्दस्पर्शरूपरसगुणाः, शब्द-स्पर्श रूपरसतन्माप्रसाहिताद् गन्धतन्मात्रात् शब्द-स्पर्शरूप-रस-गम्यगुणा प्रथिवीति । तदुक्तमीश्वरकृष्णेन "प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहकारस्तम्माद् गणश्च पोदशकः । तस्मादपि षोडशकात पन्नेभ्यः पत्र भूतानि ।। [मा० का २२ ॥ मृलप्रकृतिरविकृतिमंहदाया: प्रकृति-रिकृतयः सप्त। पोडशकम्तु विकारो न प्रकृतिने विकृतिः पुरुषः ॥ [मां. का. ३] इति । जाता है । सूखम रस मधुरता बढ़ता अम्लता मादि मेदों से गून्य होने के कारण रसप्तमात्र कहा जाता। सुक्ष्म गम्भ मरमिरवाऽसमिरख मेवों से रहित होने के कारण गायत्तन्मात्र कहा जाता एवं सूक्ष्म स्पर्श शीतस्य उष्णत्वावि मेवों मे रहित होने के कारण स्पर्शप्तामात्र कहा जाता है। 'महङ्कार से ग्यारह इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, इन के तीन पर्ग है। 'जानेजिय, कर्मेन्द्रिय मोर 'सभषेन्द्रिय । पक्ष, प्रोत्र, प्राण, रसन मोर त्यक ये पांच सानिय है। वाक, पाणि, पाव, पायु (मलेन्द्रिय उपस्थ मन्द्रिय) पे पच्चि कमेंन्तिम है। एवं मन भत्रिय है, क्योंकि शान मोर की छोतों की उत्पत्ति में इस को प्रावश्यकता होती है। पंच तत्माओं से पपमहाभूतों को उत्पत्ति होती है-जैसे पाम्ब सन्मात्र से शम्वगुरापाले भाकाश की, एवं शरदतामात्र से सहित स्पर्शतामात्र से शम्ब और स्पर्श ग्ररणदाले पापु को, शम्वतन्मात्रमौर स्पर्शतन्मात्र सहित रूपतन्मात्र ले शस्व-स्पर्श-रूपगुस वाले तेज को, शाव-स्पा-कप-रस तन्मात्र से पाच, स्पा, रूप पोर रस ये चार गुरणवाले जल को तया शम्ब, स्पर्श, रूप पौर रस सम्मान से सहित गन्धतन्मात्र से शम्व, स्पर्श, रूप रस और गंध ये पांच गुरगवाली पृथ्वीको। अंसा कि ईश्वरकृष्णने अपनी प्रकृते: महान एवं 'मूल प्रकृति मावि कारिकामों में कहा है, कारिकामों का प्रर्ष इस प्रकार है प्रकृति से महल की पोर महत से प्रहार को, पहकार से पञ्चतन्मात्र एवं ग्यारह इन्द्रिय' इन षोडश की, इन षोडश में पांच तस्मात्रों से प्राकाश मावि पंच महाभूर्ती को उत्पति होती है। इन पौवोस में प्रकृति को मूल प्रकृति कहा जाता है । यह किसी की विकृति नहीं होतो अर्थात् उस की किसी से उत्पत्ति नहीं होती। महत्, अहङ्कार प्रौर पञ्चतन्मात्र पे सात तस्य प्रकृति और विकृति दोनों है, मर्थात् मे मूल प्रकृति के कार्य होते हैं पौर इन में महत्तस्व अहंकार का, और अहंकार पंचतम्मान और ग्यारह इन्द्रियों का, मोर पत्र सन्मात्र पच महाभूतों का कारण होता है। पंच महाभूत भोर ग्यारह इन्द्रियां में सोलह कार्य हो होते हैं। ये किसी तस्वातर का कारण नहीं होते । इन चौबीस तत्त्वों से भिन्न एक पुरषतत्व है जिसे प्रात्मा कहा जाता है, जो प्रकृति और विकृति दोनों से भन्न होता है । अर्थात् वह न किसी का कारण होता है और न किसी का कार्य होता है। इस प्रकार इन परधीमा तस्वों को चार वर्ग में विभक्त किया जा सकता है। 'पविकृतिः केवल कारगमात्र प्रकृति विकृतिकारण कार्य उभयात्मक, "विकृतिमात्र केवल कार्यरूप प्रौर प्रकृतिविकृतिमिन्न पानी कारणकामिन ।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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