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स्था० श्रीका-हिनी विवेचना ]
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अथ पमाधानवार्तामाह
अन्ये त्वभिदत्यत्र पीनरागस्य भावतः । इत्य प्रयोजनाऽभावात् कर्तवं युज्यते कथम् १ ॥1 अन्ये तु जैनाः, अन ईअरविचारे, अभियधनिः परीझन्ते । किम् ? इत्याह बीतरागस्य-राग्यवतः ईश्वरस्य पान लैरभ्युपगतम्य, इन्थं प्रेग्नन्वे, प्रयोजनाऽभावात , भावतः-इन्द्रातः, कन न्वं क्रयं युपते ? यो हि परप्रेरको दृपः स स्वप्रयोजनमिच्छन्मिएर, नतोऽत्र न्यापिकायाः फलेछाया अभावाद् व्यागमय परप्रेस्कन्वयाऽभावः या
एनदेव स्पश्यत्राह
नरकाफिले कांचिकांश्चितस्वर्गाविसाधने । कर्मणि प्रेरयस्याशु स जन्तून् फैन हेतुना ? ॥६॥
ईश्वर को सिति के विषय में सांख्ययोग पोर न्यायवैशेषिक की उक्त प्रक्तियों के सम्बन्ध में मालोचना करते हुए व्याख्याकार का कथन है कि मनुष्य जब तक ईश्वर के सम्बन्ध में भगवान अनन के वचन को नहीं समझसा तब तक वह सांस्य-योग न्याय वशेषिक शास्त्रों के ईश्वर विषयक निपादन को मुनकर यदि विस्मित और मानन्वित होला है तो यह प्रत्यन्त स्वाभाविक है क्योंकि मिस मनुष्य को रस से मरी दरक्षा का रसास्वाद करने का अवसर नाब तक प्राप्त नहीं होता तब तक यह बैर जैसे निकृष्ट फल की मधुरिमा की भी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते नहीं थकता ॥३॥
(वोतराग ईश्वर कर्ता नहीं हो सकता-उत्तरपक्षारम्भ) चौथी कारिका में ईश्वर को सिद्ध करनेवाली सांरूपयोग सम्मत युक्ति का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-जन विद्वानों का कहना है कि ईश्वर वीतराग होता है । सांख्य योग में भी श्विर को वीसराग माना गया है, इसलिए यह जगत् का होना संगत नहीं हो सकता, क्योंकि कर्तृत्व साक्षात हो या दूसरे की प्रेरणा द्वारा हो, प्रयोजन की इच्छा होने पर ही संभव होता है। प्रति जिसे किसी फल की इच्छा होती है वही साक्षात मा पर को प्रेरणा के द्वारा फा होता है । वीतराग ईश्वर में फलेवासप व्यापक धर्म नहीं है इसलिए उस का न्याय होने से लाक्षात् या परप्रेरणामूलक कर्तृत्व भी उसमें नहीं हो सकता।
(नरकारिफलक कृत्य में ईश्वर प्रेरणा का प्रतीचित्य) पांचवी कारिका में पूर्व कारिका में कही हुई बात को ही स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-इवर कुछ जीवों को बाहत्या प्रादि ऐसे कार्यों में प्रवृत्त करता है जिस से कर्ताको नरक की प्राप्ति होती है और कुछ जीवों को यम नियमावि कर्मों में प्रवत करता है जिस से कर्ता को स्वर्ग की प्राप्ति होती है । प्रश्न होता है-वर सीबों को इस प्रकार विभिन्न को में यों प्रवास करता है। इस प्रकार जीवों को प्रवृत्त करने में उसका क्या प्रयोजन सिद्ध होता है?