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[ शा. वा. समुश्चय स्त०-३ श्लोक-३
श्रुतवं सकदे नमीश्वरपर साख्याऽक्षपादागम, लोको विस्मय मातनोति न गिरो याचन स्मरेदाईतीः । किं तावदादरीकलेऽपि न मुहुर्माधुर्यभुनायते, यावस्पीनरसा रसान् पसनया द्राक्षा न साक्षात्कता 1 ||शा
___* इत्यभिहिता ईश्वरक त्वपूर्वपश्चयाता -
'या दुःखेन संभिन्न मह विभिन्न वाक्य अपने अर्थ में प्रमाण है। इम उचाहरणों से यह अत्यन्त स्पष्टक घेव के ऐसे बचनजा विधि-विंषरूपननांत ये भी बरका वर्णन करते है ईश्वर को ससा में प्रमाण है । इस प्रकार श्रुति अर्थात् ऐश्वर परक येव से भी ईश्वर को सिद्ध होता।
(प्रशंसापरक और निवापरक वेदवाक्यों से ईश्वरसिद्धि) वापर का अर्थ है वेव में प्राप्त होने वाले प्रशंसा और निन्दा का वाक्पउन वाक्यों से भी ईश्वर का अनुमान होता। जैसे, बैदिक प्रशसा और निक्षा के पक्म स्वार्थकामपूर्वक है क्योंकि वे काश्य है ओ भी वाय झोता है वह स्वायनामपूवक होता है जैसे 'घटमानय परभानय प्रत्यानि सौकिक वापय । कहने का आशय यह है कि किसी भी वाक्य का प्रयांग सिसी विशेषमय को प्रताने के लिये किया जाता है और यह विशेष अर्थ वही होता है जो वक्ता की बात हो और जिसे सताने में प्रयुक्त होनेवाला वाषय समय हो । साम ifuषम सोही : लिये देव के प्रांता-निन्धा वाक्म जिस की प्रशसा या निदा का बोध कराने के लिये प्रयुक्त होते है-यह मानना आवश्यक है कि वक्ता को उनके गुण और बोष का ज्ञान रहता है। क्योंकि वक्ता को जिस का गुण गौर घोष शासन होगा वह उस का प्रवासा या निरवा के वाक्प का प्रयास नहीं कर सकता । तो इस प्रकार जब यह सिखो किबंधिक प्रशसा और निम्मावाक्य भो स्वाधमानपूर्वक हाते है तो उस मान के आश्रय रूप में जाव को स्वीकार करना संमषम होने से ईश्वर का अस्तित्व मानना आवश्यक है।
(उसम पुरुषीय प्राण्यात प्रत्यय से इंश्वर सिद्धि) संख्या का प्रथं है बेद में प्राप्त होनेवाले उत्तमपुरुषीय तिङ्-माख्यात प्रत्यय से याच्य संख्या 1 प्रामाम यह है कि उसम पुरुषीय माख्यात अपने स्वतंत्र उच्चारण कसी को संस्था का मोधक होता है। जैसे मंत्र कहता है कि विद्यालयं गमिष्यामि' इस वाक्य में गम् पातु के उत्तर उसम पुरष का एकवचम प्रारमात जो 'मि सुनाई देता है वह अपने स्वतंत्र उच्चारपाका चंद्र की एकत्यसंख्या का बोधक होता है । वेव में भी 'स्याम-मसूबम्-भविष्यामि' इस प्रकार उत्तम पुरुषोय प्रात्यात के प्रयोग प्राप्त होते है । नतः उन मायात पदों से संख्या का मभिधान उपपन करने के लिये उन का भी कोई स्वतंत्र उच्चारणकर्ता मानना मावश्यक है जो ईश्वर से अन्य दूसरा नहीं हो सकता । इस प्रकार वेवस्थ उत्तमपुरषीय माल्यास से वासघ संख्या द्वारा इधर का अनुमान होता है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है जैसे 'वेवस्थ उत्तमपुरुषोम प्राख्यातपर बोष्य संण्या तारामास्थान के स्वसंत्रोच्चारणकर्तृ पुरुष गत है, उत्तम पुरुषीप पाण्यातवाय संख्या होमे से, जैसे सौकिक वाक्यस्थ उत्सम पुरुषोय प्राण्यात वाच्य संख्या।