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________________ स्या क० टीका-हिन्दी विवेचना ] श्रुतिः ईअरविषयो वेदः सतः, 'यो वै विष्णुः' इत्पादेविध्येकवाक्यतया यत् न दुःखेन संमिन्नम्' इत्यादिमत् तस्य स्वार्थ एव प्रामाण्यात् । वाक्यात वैदिकप्रशंसा-निन्दाबाक्याव । तस्य तदर्थज्ञानपूर्वकन्वात् । संख्या स्यामभूयम् , भविष्यामि' इत्याधुक्ता । ततोऽपि स्वतन्त्रोच्चारविनिष्ठाया एच तस्या अभिधानादितिरहस्यम् । मानता रहने के कारण उषत वाक्य को पुष्टसाधनता के अभाव का बोधक मानना उचित नही हो सकता । यदि यह कहा जाप-केवल एप्प्साघस्य को विधिप्रत्यष का अर्थ मानने पर यह बोष हो सकता है, किन्तु 'बसवमिष्टाननुबन्धित्वविदिष्टमानता अर्थात बलवान अनिष्ट का साधन न होते हुए इन्टका साथम होमा' इस को विधि प्रत्यय का अर्थ मानने में उपतोष महीहो सकता क्योंकि सचिव मन का भोजन मद्यपि दृप्ति रूप ५ष्ट का साया है किन्तु साय हो वा मत्यु रूप बलवान भानष्ट का भी साधक है। इसलिये निषेध वाग्य से सलवनिष्टाननुमधिर विशिष्ट अष्टसाधना के अभा का बोध होने में कोई गघा नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'येनेन अभिवम् यजेत' इस विधि वाक्य से श्येनयाग में विधिप्रत्ययार्थ का बोध होता है। वि विधप्रस्थय का अर्ष बलबनिष्टानमन्षिस्वविशिष्टसाधनत्व को माना आपणा तो येनयाग में शवपलम्प पाप द्वारा नरकरूप बलयान अनिष्ट को साधनता होने के कारण इस में विधिप्रत्यय से विध्यर्थ का शेष न हो सकेगा। इसी प्रकार 'स्वर्गकाको प्रजेत' इस वापप से पक्ष में उस पुरुष को विध्यर्व का योग न हो सकेगा जो यम के अनुष्ठान में अवश्यंभावी अम्पन को भी बलवाल समन पर उससे इष करता है। इन सब बातों से यह निश्विाव सिद्ध है कि विधिप्ररपय का अर्थ आन्तामिप्राय हरे है अन्य कुछ महौं । सात रस अभिप्राय के आभय रूप में ईवर की सिद्धि आवश्यक है। (देव गत इश्वर निरूपए से ईश्वर सिसि। अति का अर्थ है ईदवरपरक वेव । इस से भी ईश्वर का अनुमान होता है। कहने की आपाय यह है कि वेव में ऐसे अनेक पचन प्राप्त होते हैं जिन में ईश्वर का वर्णन होता है। ऐसे वचन यपि विषिरूप नहीं होते क्योंकि उन से किसी प्रकार के विधि मा निषेध का उपयश नहीं होता। जो विमान से मोमसिकादि विधिनिषेध योषक वाक्य को ही प्रमाण मानसे उन को दष्टि में भी से वचन जो विधि-निषेध रूप नहीं होते अपने अर्थ में प्रमाग होते हैं. क्योंकि उन वाक्यों की विधि धामों के साथ एकवाक्यता होती है । अर्थात् विधिवाषय और विधि से भिन्न विधि के अक्षाभूत वाक्य मिलकर एक अर्म का प्रत्यायन करते हैं। जमे विष्णु उपासीत' यह विधि वाक्य और यजा विष्णबह विधिभिन्न वाक्य बोनों 'यशस्वयम् विमुपासीत' इस मयंका चोधक होता है । यह बोष सभी हो सकता है जय 'यशो वं विष्णु स विधिभिन्न वामय को भी अपने अर्थ में प्रमाण माना जाय | इसी प्रकार कामरे योत' यह विधिवास्य और मन सुखेन संमिन्नं न च प्रस्तम् अनन्तरम्। अभिलाषोपनीसंतरसुखं स्व:पदास्पदम || यह विधिभिन्न वाक्य मे बोनों मिलकर इस अर्थ का बोधन करते हैं कि यह ऐसे मार्ग सुख का साधन है जो दुःख से भिध नहीं है, जिसे बाद में भी दु:ससे प्रस्त होने की संभावना नही है और मोछामात्र से ही प्राप्य है। पह बोध भी संभव है जब
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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