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________________ ३२] [शापार समुनव-न३ श्लो०३ को साधमता में प्रमाण है। किन्तु यदि विविस्मय का अर्थ साधमता को माना जाय तो प्रारमती मत्यतरति एम वाक्य से ही प्रारमझान मैं मरपुतरण की साधनता का बोध हो जाने से उस बोध के संपावना विधि का अनुमान रिकही मायगा : और at isधि प्रत्यय की मात्राभिप्राय माना जायगा तब आत्मसो मायुसरति स वाक्य से आत्मझान मृत्युतरण का साधन हैं यही बोध होने के कारण आमतान मामुनरण चाहने वाले के कर्तव्यरूप में आप्ताभिप्रेस इस विद्यार्थ का पान कराने के लिये विधिवावषो अनुमान को सार्थकता हो सकेगी। वपोकि मह बोध 'आत्मनो मृत्यु सरति' इस पापय से नहीं होता। विधिप्रस्थय से शिवराजमान होने का एक और भी प्रकार है जो, वेदवाक्य में मध्यम पुरुवीय और उत्तम पुरुषीय विधि प्रत्यय भी उपलव्य होते है। जैसे 'आत्मामम् विधि:-आस्मा का शान प्राप्त करो' एकोऽहं बन स्याम् प्रजायेयमें एक है अतुत होना और प्रकृपद रूप में प्रादुर्भूत होऊ ।' म वाक्यों में माये विधिप्रत्यय को उन से घटित बाक्य के पत्ता के संकल्प का बाधक मानना आवश्यक है क्योंकि मध्यम और उसम पुगबोध विधिप्रत्यय वक्ता के हो बारूप का बोधक होता है। जमे कार्य कुर्याः । इन लोकिक वाषयों में आये विधिप्रत्यय से वक्ता के ही संकल्प का प्रोप होता है। इसमकार विक वाक्यों में आये विधिप्रपय से जिस वक्ता के संकल्प का बोध होगा वह जीव नहीं हो सकता किन्तु वियर ही हो सकता है। क्योंकि वेव का माधवक्ता सवार हो हो सकता है लीव नहीं हो सकता। इसी प्रकार भाजा प्राध्यषणा अनुमा संप्रश्न प्राणना और आपसा धोषक लिङ्गप्रत्यम भी इच्छारूप वर्ष का हो बोधक होमा है और यह सभी प्रकार के लियेयों में उपलब्ध होते है । अतः एव उन से घोषित होनेवाली सच्छा के आश्रय छप में पर को स्वीकार करा आक्षक है। लिक के साशा आधि अभी के निधन से लिङ्गकी इच्छावाचकसा स्पष्ट है। जैसेभाना का अर्थ यह इच्छा है जिस का उल्लग्न करने पर यावान् पुरुष कुद्ध होने का संभव हो । अध्येपणा का अर्थ है व्हाया जिस से अध्ययणायंक लि का प्रयोग करने वाले पुषष की मध्येधणीय पुरुष के प्रति कृपा का बोध हो । भनुशा का अर्थ वह इच्छा है जिस से निषेध का अभाव सूचित हो। प्रयोजन अथवा हेतु धादि को जानने की का नाम है प्रश्न । किसी वस्तु को प्राप्त करने कोणा का नाम है प्रार्थना। गुभ की इच्छा का नाम है आशंसा । इस प्रकार आशा मावि के इस निर्वधन के अनुसार मानव बोधक लिङ्गको इच्छा को गोधकप्ता स्पष्ट है। [निषेध को अनुपसि] इष्टसाधनाव को विधि प्रत्यय का मयं मामले में एक मोर मी बाधा है और कहा है निवेध की अनुपपतिजसे 'सविषममा भुवयास निषेध वाक्य तविष बनभोजम में विध्ययंका निषेध कासाबधि बिध्ययं इष्टसाभनताधोगा तोस बाल्य का अर्थ होगा सविसन का प्रोग्राम इष्ट का साधन नहीं होता' को असंगत है गोंकि भोजनका को घण्ट होती है तृप्तिमको मिति । वह सविष बन्न के भोजन सेमी संपन्न होती है, इसलिये सचिव अम के भोजन में इष्ट.
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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