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स्वा कर टीका हिनीविवेचना ]
प्राप्ताभिप्राय से इष्टसाधनता का मान होता है और उस शान से मनुगत को प्रवृत्ति होती हैं। से, गुग के मोक्षकाम हरि मरेन इस वाग्य से हारस्मरणम मोभकामकाव्यतया गुरोः अभिप्रेतमा अर्थात् 'भगवान का स्मरण मुल पुरुष के कर्तव्य रूप में गुरूको अभिप्रेत सान होने पर यह गनु-भगवा क र है. नोकि मोत्रकार के कर्तव्यरूप में आप्त को अभिप्रेत है । शो जिस फल का साधन नही होता वह उस फल को चाहने वाले पुरुष के बर्तन्यरूप में आप्ताभिस महीं होता । जमे यतकशा आदि मोक्ष का साधन मोने से किसी प्राप्त वर्ष को मोक्षकाम के तस्कर में अमित नहीं होता-स प्रकार जब RAIभिप्राय के इशष्टमाषनता का बोष मनुष्य को प्रवृति के लिये अपेक्षित है तो विधिप्रत्यय से भारताभिप्रापको बोष और आप्ताभियान से साधनप्ता का अनुमान मानने की अपेक्षा यही मानना उचित है-हम साधनाता हो विधिप्रापय का अर्थ है। विभिप्रत्यय-घटित वारघ में इष्टसाधना का हो तोधा बोध होता है, मध्य में मानाभिप्राप के बोध को कल्पना अनावश्यक है। मप्रकार अब साधनता ही मुक्तिनारा विधिप्रत्यम का अर्थ मित्र होता है सो उक्त रीति से विधि प्रत्यय को ईश्वर का अनुमापक बताना सचित नहीं हो सकता।
(इष्टसाधनता पक्ष में समस्या) किन्तु विषार करने पर मामला जमिन नहीं प्रतीत होती । क्योंकि विधिपत्यय के अयंका अनुमान इष्टसाधनरव से किया जाता है। यदि इष्ट साधनत्य ही विधिप्रत्यय का अर्थ होगा तो साध्य माधन में ऐषद हो जाने के कारण गटसाधनस्व विधिप्रविया का अनुमा न हो सकेगा । जैसे 'अगिमकामो वारण) मनीपात अग्मि चाहनेवाले मनुष्यों को दो कारों का घर्षण काना चाहिये ।' इस वियर्थ का ज्ञान होने पर प्रपन होता है-सा क्यों ? अर्थात् 'कुतः अग्निकामो दारणो मनीयात् ?' इस प्रश्न के उत्सर में यह कहा जाता है कि वारपणन अग्नि का साधन है। सरकार उक्त वाक्य से विध्यर्थ का शान होने में अग्निसाधनताको उसके हेतुकार में प्रसिद्ध किया जाता है। इसलिये यह मानना आवश्यक है कि विध्यर्थ ष्टमाघनता से भिन्नई और जन आप्ताभिप्रायको विधिप्रत्यय का अर्थ माना जायगा तम 'अग्निकामो दाकणी मम्मीयात इस बाश्य से वाह मचा अग्निकामी के कर्तव्य रूप में आरतको अभिप्रेत है-यह शानोगा। और उस पर जब यह प्रश्न होगा कि 'दाह का मयन निकामी के कर्तव्यरूप में भारत को क्यों अभिप्रेत है। इसके उत्तर में बाकामा समान होगा कि-यत: वामपन अग्नि का साधन है इसलिये अनिकामो के कसंपरूप में आप्त को अभिप्रेत है।
(तर्रात मृत्यु से विधिवाश्य का अनुमान) इष्ट सामनता को विधि प्रत्यय का अर्थ मामने पर तरति मत्युम प्रारमवित इत्याशिवायों से विधिवाक्य का अनुमान हो सकेगा क्योंकि विधिवामानुमान के पूर्व ही उम स्थलों में इष्टसाधनता का मोम हो जाता है। आशय यह है कि 'आत्मनो भत्सनाति' यह वाक्य इस अर्थ को बसाना है कि 'भारमझानी मृत्यु का अतिक्रमण कर लेता है। सऊर्थोध के बाद पह जिलासा होती है कि आत्मज्ञान से मरघु का मतिक्रमण होता है बस में या प्रमाण है? उस के उत्सर में यह कहा जाता है कि 'आत्मनो मायुतरति इस बाघ से आरमझान के मस्यूतरणरूप फल का अक्षण होने पर इस विधिवषयका अनुमान होता है कि 'मत्युतरणकाम: आत्मानं जानीयात', यह विधिधाश्य ही आत्मनाम के मत्युतरण