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________________ ३० ] [ शा. पा, समुच्चय स्त-३ रजीक-३ सथा, 'अग्निकामो दारुणी मनीयान्' इत्युक्तो, 'कुतः' इति प्रश्ने 'यनो दारुमथनग्निसाधनम्' इत्वृत्तरेऽग्निसाधनत्त्वेन विध्यार्थवश्वानुमानानुपपत्तेः, अभेदे हेतुत्वेनापन्यारानीचित्पान , सरनि मृत्यु 'प्त्यादौ विधिवाक्यानुमानानुपपत्तेश्चेष्टमाधननायाः प्रागेव बोधान , 'कुर्याः, र्याम् इत्यादी वपन संकल्पस्यैत्र पोधात , आज्ञाऽध्येपणा-ऽनुज्ञा-संप्रश्न-प्रार्थना ऽऽशंसालिकीच्छाशक्तन्धस्यैव कल्पनाच्च । उल्लङ्घने क्रोधादिभय निकेन्छाऽऽज्ञा. अन्येषणी प्रयोक्तानुग्रहयोतिकाऽध्येपणा, निषेधाभावाचकाऽनुज्ञा, प्रयोजनादिजिज्ञासा मश्नः, प्राप्तीका प्राधना शुभेच्छाशंसा 1 निषेधानुपपत्तेश्च, इनसाधनत्यनियंत्रम्य पाघात । पलपदनिष्टाननुपन्धिवम्यापि तदर्थन्वे 'श्येनेन' इत्यादी अलसम्म यागादिनाऽपि बलबद्देपेण 'यजेस' इत्यादी बाधान् । सत प्राप्ताभिप्रायस्यैव विध्यर्थस्वात तारशाभिप्रायवदीश्वरसिद्धिः। चाहने वाले को भगवान का स्मरण करना चाहिये तो शिष्य को इस विधिप्रत्ययरितवाषय से यह भोप होता है-'भगवान का स्मरण यही मुमुक्ष का कर्तव्य है-यह गुरुदेव का अभिप्राय है ।' इस अभिप्राय को जान कर ही भगवान के स्मरण में प्रसन्न होता है. क्योंकि यह जन के मित्राय को जान कर तवनुसार कार्य करना ही शिष्टाचार-प्राप्त कर्तव्य है। वषाक्य में भी विधिप्रत्यय होता है में स्वर्गकामो पजेत में यज् धातु के उत्तर में श्रयमाण लिङ्ग प्रत्यय । इस लिङ्गप्रयम का भी अर्थ प्राप्त का अभिन्नाय' मानना होगा । अर्थात इस लिङ्ग प्रत्यय घटित वाक्य से भी इस प्रकार काही बोध मानना होगा 'पज स्वर्गकाम पुरुष का कर्तव्य है यह " स्वर्गकामो यजेत" इस पान्य के प्रयोग करने वाले प्राप्त का अभिप्राय हैं । यह अभिनाय उप्ती पुरुष का हो सकता है जिसे यह सहज जान हो कि याग स्वर्ग का साधन होता है । असा पुरूष कोई जोब न होगा, ईश्वर ही हो सकता है क्योंकि माग में स्वर्भसाधनता का सहल शान जोष को महीं हो सकता, वह ईश्वर को ही संभावित है क्योंकि वह संपूर्ण पदार्थों का साधननिरपेक्ष वृष्टा होता है। इस प्रकार वेवस्थ विधिवाश्म से सचिस होनेवाले प्राप्त के अभिप्राय के प्राभय रूप में श्विर का अनुमान होता है। प्रामुमान का प्रयोग इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है असे 'देवस्थ विधि प्रत्यय पारतामिप्राय का बोधक है, मयोंकि वह विधिप्रत्यय है. जो भी विधि प्रत्यय होता है वह सब प्राप्ताभिप्राय का बोधक होता है। जैसे 'भृत्वः प्रापणम् गच्छेन' मिष्य : शास्त्रम् पठेत वस्सदुग्ध पिवेत्' इस्पावि लौकिक वाक्यों में सुनाई देनेवाला विधि प्रत्यय । [विधिप्रत्ययार्थ इनसाधनता या प्रामाभिप्राय ? तुम प्रसङ्ग में यह शग हो सकती है-"विधिप्रत्यय चाहे लौफिकवाय हो चाहे वैविकवाक्य हो, सर्वत्र उस का अष्टसाधनत्य ही अर्थ होता है न कि प्राप्ताभिप्राय । क्योंकि मनुष्य को प्रवृत्ति इष्टसाधनताज्ञान से ही होती है। न कि माताभिप्राय के शान से। अतः प्रासामिप्राय को विधिप्रत्यप का पथं मानने पर मो यही मानना होगा कि निषि प्रत्यय से प्रासाभिप्राय का ज्ञान होता है मौर
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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