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1 शा. वा. समुनयस्त३-०६
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स= ईश्वरः कचिज्जन्तून नरकादिफले हत्यादी फर्मणि, काचित् स्वर्गादिसाधने यमनियमादौ वा आशु शीघ्रम् केन हेतुना प्रेस्थति क्रीडादिप्रयोजनाभ्युपगमे रामपा वैराग्यव्याङ्गतिः प्रयोजनाऽनभ्युपगमे च तन्मूलकप्रेरणाभावात् सिद्धान्तच्याघातः इत्युतः - पाशा रज्जुरिति भावः ॥५॥
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पराभिप्रायमाशङ्कय निराकरोति
स्वयमेव
प्रवर्तन्ते सत्त्वादचित्रकर्मणि ।
निरर्थक मिहेशस्य कर्तृत्वं गीयते कथम् ? ॥ ३ ॥
'सच्चाः, चित्रकर्मणि= ब्रह्महत्या यम-नियमाडौ, स्वयमेव नमः मुखोद्रेकेण तथा वि'शष्या रागदेशेय प्रवर्तन्तु स्वनाऽभिमन्यन्ते, प्रयोजनज्ञानार्थं परमीश्वरापेक्षेति चेत् ? इह कर्मण, निरर्थकमीशस्य कर्तृत्वं कथं गीयते प्रयोजनज्ञानं हि प्रव नार्थमुपयुज्यते प्रवृत्ति यदि रूप एवोपपना नदेश्वरसिद्धिव्यमनं गृहलब्ध एव धने विदेशगमनप्रायम् । ६।।
यदि यह कहा जाय 'विभिन्न जीवों को प्रधुल करना यह उस का खेल है। खेल खेलने के लिए ही वह विभिन्न कर्मों में जीवों को प्रवृत करता है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि खेल से भी मवि मनुष्य को किशो प्रकार का सुख प्राप्त होता है तभी वह खेल भी खेलता है प्रत्यधा खेल से विरत हो जाता है 1 प्रामाय यह है कि ईश्वर यदि किसी प्रकार के सुख की ईच्छा से बेल खेलता है तो उसे सुख और सुख के साधन के प्रति रागवान मानना । यवि यज्ञ मनोविमो के लिए था यदि मानसिक कष्ट करे दूर करने के लिए खेल खेलता है तो कष्ट और कष्ट के साधन के प्रति द्वेषवान् मानना पड़ेगा। फलतः ईश्वर को वीतराग कहना असंभव हो जायगा | और यदि ईश्वर का खेल खेलने में कोई प्रयोजन न मात्रा जामगा तो जीवों को विमिश कर्मों में प्रवृत्त करना यह उस का खेल नहीं घट सकता क्योंकि परका प्रम मी किसी प्रयोजन से ही होता है। फलतः ईश्वर परका प्रेश्क होकर कत्र्ता होता है' इस सिद्धान्त की हामि हो जायगी। उक्त रूप से विचार करने पर सांख्य और अन्य बाबी के लिए दोनों ओर से बांधने बाली रस्सी तैयार रहती हैं, अर्थात् जसे बीतराग माना जायगा तो वह पर कर मेरक नहीं हो सकता और यदि पर क प्रेरक होगा तो वीतराग नहीं हो सकता । श्रतः सत्य और अन्य वादी को ईश्वर के सम्बन्ध में वीतरागता और पर-प्रेरकत्व इन दोनों में किसी एक का त्याग करना मावश्यक है।
(बुद्धि स्वपक्ष में भी ईश्वरकर्तृत्व निरर्थक )
पट्टी कारिका में ईपवर के सम्बन्ध में सांख्ययोग के एक और भाषाय को प्रस्तुत कर उस का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-जीव ब्रह्महत्या और यम नियमादि जैसे विभिन्न कर्मों में स्वयं हि प्रवृत्त होते हैं। आशय यह है कि सांख्यमतानुसार प्रवृत्त-निवृत्त होना पुरुष का काम नहीं है किन्तु उस की बुद्धि का काम है। बुद्धि त्रिगुणात्मिका होती है। बुद्धि के तीन गुण सत्व रजस्तमस कहे जाते है ।