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स्थान का टीका हिन्धी विधेमा ]
अभिप्राधान्नरमाशझ्यय निराकुरुतेमूलम्-फलं ददाति चेत्सर्वं ततेनेह प्रचाषितम् ।
भफले पूर्वदोषः स्यात् सफले 'भक्तिमानना ॥७॥ सर्व ताम्-चित्रं कर्म, इह-जगति, तेन ईश्वरेण, प्रमोदितम् अचिटिनं मत , फलं= सुखदुःखादिकम् , बदानि-उपचने, अचंतनस्य नेतनाधिछिसम्यैव कार्यजनकत्वादिति चेन ? अफले-म्बमभिप्रफलदानाऽसमर्थे कर्मण्यम्युपगम्यमाने, पूर्वशेषः पूषोक्तः स्वर्ग-नरकादिफलानियमदीपः स्यात् । सफले स्वतश्चित्रफलदानसमर्थकणि वभ्युपगम्यमाने, भक्ति. मात्रता-ईश्वर भक्तिपात्रं स्यात् , हरीतकारकन्यायान् । 'अचेतन चननाधिष्ठितमेय जनकमि'मि नियमम्त्वताशस्यापि वनवीजम्याडकरजननबदशेनादसिद्धः तस्यापि पशतायाम् , अन्यप्रापि व्यभिचारिणः पक्षनायां निवेशेऽन कान्निकोच्छेदप्रसङ्गादिति भावः ||५||
जब बुद्धि के सत्व गुण का उत्कर्ष होता है तब उसे घया भक्ति-यम्यादि प्रशस्त साविक भाव जाग्रत होकर सत् कर्तव्यों को करने का संकल्प होता है और उम के अनुसार रजोगुण के सरकार से वह सत्कर्म करती है। जब बुद्धि के रजोगुण का उद्रेक होता है तव सत्त्व मा तमो गुण से प्ररित हो सस् या असत कर्मों करने का संकल्प होता है पीर उन के प्रमुसार वह सत् बा प्रसत फर्मों को करती है। जब बुद्धि के तमोगुण का प्राधिक्य होता है तब उस में प्रवल राग उप ईर्ष्या निर्दयतादि तामस भावों का प्राकट्य होता है । बुद्धि को इस पार्तृत्व का पुरुष को केवल अभिमान होता है और यह इसलिए होता है कि पुरुष अपने को वृद्धि से पृथक नहीं समझता। विभिन्न फमों में पुष को स्वतः सस्व का अभिमान प्रवृत्त होता है । अनि के विभिन्न कामों में वृद्धि को प्रवृत्ति के लिए न प्रयोजन का माम अपेक्षित होता है जो पिवर के संनिधान से ही संभव है अर्थात वर लि को तत् तत् सौ के प्रयोजन का ज्ञान संपादित करता है और उसी से सुद्धि तस् तत् कर्मों में प्रवत्त होती है। ईश्वर को परप्रेरक मानने में योगदर्शन का यह अभिप्राय है किन्तु इस संबन्ध में प्रकार की यह मालोचना है-त्रिगुणारिमका बुटि स्वभाव से ही प्रवृत्तिशील है। प्रतः उस के प्रशासन के लिए प्रयोजन धान का कोई उपयोग नहीं है और यदि है तो वह भी धि को स्वयं ही संपन्न हो सकता है। प्रातः उस के लिए रिसर को सिद्ध करो का प्रयास ठीक उसी प्रकार निरर्थक है जैसे घर में ही धन की प्राप्ति संभव रहने पर धन कमाने के लिए विवेश को यात्रा निरर्थक होती है ।
(कर्म को ईश्वराधीनता का निरसन) ७वों कारिका में योग दर्शन के एक और अभिप्राय की चर्चा कर के उस का निराकरण लिया गया है। कारिका का प्रयं इस प्रकार है___सभी कर्म ईश्वर की प्रेरणा से हो फलप्रद होता है क्योंकि प्रवेतन में वेतन के संयोग से ही कार्यजनकता होती है । अतः कर्म की सफलता उपपन्न करने के लिए ईश्वर का अस्तित्व प्रावस्यक है। इस अभिप्राय के सम्बन्ध में ग्रन्थकार की यह समीक्षा है कि पांच विभिन्न कर्म विभिन्न फलों को प्रवान करने में स्वयं समपं न हो तो विर का अस्तित्व मानने पर भी उन कर्मों से स्वर्ग नरकवि विमिन्न