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शा. बा. समुच्चय न०-३१-८
आदिम तस्यैव स्वातन्त्र्यमित्याशङ्क्य निराकुरुते -- आविसर्गेऽपि नो हेतुः कृतकृत्यस्य विशते । प्रतिज्ञातविरोधित्वात् स्वभावोऽप्यप्रमाणकः ॥ ८ ॥
आदिसर्गेऽपि कृतकृत्यस्य वीतरागस्य हेतु: प्रयोजनम्, न विद्यते मनः कथमादिसर्गमध्यय कुर्यात् १ । अधेरशः स्वभाव एवास्य यत्प्रयोजनाभावेऽप्यादिम स्वातन्त्र्येणैव कनि, अन्यायपेक्षयैवेति । अत आहह- 'स्वभावोऽपि प्रामुक्तः 'अप्रमाणकः,' धर्मिण्ट एव चासो कुन ताः स्वभावः कल्पनीयः । इति भावः ॥८॥
फलों की सिद्धि न होगी । एयोंकि यदि कर्मों मे स्वयं तद्त फलप्रवान करने का सामर्थ्य न होगा तो ईश्वर का अस्तित्व दोनों प्रकार के कर्मों के लिये समान होने से यह नियम नहीं हो सकता कि ब्रह्मादि से नर्क हो हो और यमनियमावि से स्वर्ग हो। और यदि इस दोष के परिहारार्थ उन कर्मो को त तद् फलों का प्रदान करने में स्वयं समर्थ माना जायगा तो फिर ईश्वर को मानने की या श्रावश्यकता होगी ? क्योंकि कर्म तो स्वयं हो सद् तद् फलों को प्रदान कर देते हैं। अत: उल पक्ष में भी ईश्वर को कर्म का सहकारी मानना ईश्वर के प्रति भक्त को भक्ति का अज्ञानपूर्वक प्रदर्शन मात्र है। यह ठीक उसी प्रकार जैसे किसी मनुष्य को स्वयं रेव होने पर हरितको के सेवन की प्रवृति और यह जो बात कही गई कि वेतन चेतन के सहयोग से ही कार्य का जनक होता है वह श्री सत्र नहीं हैं। क्योंकि वेतन सहायक के बिना भी वनस्थ बोज से अंकुर की उत्पत्ति होती है। यदि यह कहा जाय वनस्थ बीज भी पक्ष कोटि में ही प्रविष्ट है अर्थात् जैसे कर्म को फलता को उपप करने के लिये कर्म को सहकारी ईश्वर की प्रावश्यकता होती है उसी प्रकार बनस्थ बीज में अंकुरजनकता की उत्पत्ति के लिये भी वनस्थनीज के सहकारीरूप में ईश्वर की कल्पना की जायगी' - किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर जगत् में अनैकालिक दोष का अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा अर्थात् कोई मो हेतु कहीं भी साध्य का व्यभिचारी न हो सकेगा क्योंकि जहाँ भी हेतु में साध्य का व्यभिचार प्रशिल होता उस का पक्ष में श्रन्तर्भाव किया जा सकता है ||७ ॥
( वीतराग ईश्वर को विश्वरचना में प्रयोजनाभाव )
कारिका में ईश्वर प्रयमसृष्टि का स्वतंत्र कर्ता है इस मत का निराकरण किया गया है। ईश्वर के कर्तृत्व का समर्थन करनेवाले कुछ लोगों की यह मान्यता है कि जो सृष्टि जीव के कर्मों से संपन्न होती है यह तो ईश्वर के बिना जीव के कर्मों से ही उपपन्न हो जायगी किन्तु पहली सृष्टि जिस के पूर्व जीवक मं विद्यमान नहीं है उस की उपपति ईश्वर से ही हो सकती है। किन्तु यह मानना मुक्तिसङ्गत नहीं प्रतीत होता क्योंकि ईश्वर वीतराग है उसे किसी वस्तु को इच्छा नहीं है तो वह सृष्टि को उत्पन्न ही क्यों करेगा ? मतः सृष्टि के सम्बन्ध में भी यही मानना होगा कोई सृष्टि प्रथम सृष्टि नहीं है बल्कि सृष्टि का प्रवाह मनावि है। पूर्व में ऐसा कोई काल नहीं था जिस में यह सृष्टि न रही हो । यवि ऐसा न माना जायगा तो सृष्टि का अस्तित्व रहना किसी मो प्रकार संभव न हो सकेगा।