________________
भ्याट क० भीका हिन्दीधिबेचना ]
विहेतुतया धर्मग्राहकमानेन तादृशस्वभाव एव भगवान् साध्यते इत्यभिप्रायादाहलम्- कर्मास्तस्वभाव न किशि पाध्यते विभोः । विभोस्तु तत्स्वभावसे कृतकृत्यत्वयाधनम् ॥ ९ ॥ कर्मादिस्तत्स्वभावत्वे-ईश्वरमनपेश्य जगज्जनन स्वभाषत्त्रे न किञ्चित् विभोः परमेश्वरस्य वाध्यते 1 विभोस्तु तत्स्वभावत्वे स्वातत्र्पेण अन्यहेतुमापेक्षमया वा जगज्जनन स्वभागवे, कृतकृत्यश्वत्राधनम् वीतरागत्वव्याहृतेः कारणतया प्रकृतित्वप्रसङ्गाच्च । अप परिणामवादन प्रकृतित्वम् प्रयोजनाभावेन जन्येच्छाया अभावेऽपि नित्येच्छा सच्चाद नराम्यन्याहृतिः जन्येच्या एत्र पदार्थत्वात् । ऐश्वर्यमपि न जन्यम्, किन्तु सतफला - वच्छ सर्गादि रजःप्रभृत्युदेकोऽपि तत्र तत्कार्यकारितयैव गीयत इति न कूटस्थ दानिरिति चेत् ?
,
I
1
[**
जल्पता गिरिसाधने गिरं न्यायदर्शन निवेश पेजलाम् ।
I
सांख्य संमति निर्ज कुलं वया हन्त हन्त ? सफलं कलङ्कितम् ||11| यत एवं कार्यजनकज्ञानादिसिद्धी नाश्रयतया बुद्धिरेव नित्या सिध्येत न न्वीश्वरः, बुद्धित्वस्यैव ज्ञानाद्याश्रयतावच्छेदकत्वात् आत्मत्वस्य तदाश्रयतावच्छेदकत्वे तु जन्यज्ञानादीनामध्याम्मानितया विलीनं प्रकृत्यादिप्रक्रियया इति किमशेन सह विचारप्रपञ्चेन १ ।
1
यदि यह कहा जाय - 'नहीं, सृष्टि अपूर्व भी होती है जिसे प्रथम सृष्टि कहा जा सकता है। और उसे किसी प्रयोजन के बिना यो परमेश्वर अपने स्वभाव से ही उत्पन्न करता है। किन्तु जब पहले सृष्टि हो जाती है और उस में जोष शुभाशुभ कर्म करने लगते हैं तब उस के बाद की सृष्टि उन कर्मों के अनुसार होती है। प्रति वाद की सृष्टि को ईश्वर कर्मानुसार संपक्ष करता है' यह कहना भी ठोक नहीं है क्योंकि यदि ईश्वर किसी प्रमारण से सिद्ध हो जाय तब उस में बिना प्रयोजन के भी निर्माल करने के स्वभावरूप धर्म की कहपता की जा सकती है किन्तु जब तक वह स्वयं ही सिद्ध नहीं है तो उस में स्वभाव की कल्पना कैसे हो सकती है? यदि यह कहा जाय- प्रथम सृष्टि के कर्ता रूप में ईश्वर का अनुमान होता है और प्रथम सृष्टि का कर्तृव ईश्वर का उक्त स्वभाव मानने पर ही संभव है पतः सृष्टि मूलक जिस अनुमान से ईश्वररूप धर्मीकी सिद्धि होगी उसी प्रमाण से उक्त स्वविशिष्ट हो ईश्वर को सिद्धि होगी । अतः यह मावश्यक नहीं है कि ईश्वररूपधर्मी को पहले सिद्ध किया जाय और खाब में उस में उक्त स्वभावरूप धर्म को कल्पना को आय।' किन्तु यह कहना मी ठीक नहीं है क्योंकि प्राद्य सृष्टि में हो कोई प्रमाण नहीं है ।
(निष्प्रयोजन चेष्टा से वीतरागता की हानि )
बों कारिका में इस मभिप्राय की चर्चा और उसको प्रालोचना की गई है- विजय के कर्ता कप में जिस मानप्रमाण से ईश्वररूप धमों की सिद्धि होगी उस प्रमाण से प्रयोजन बिना