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________________ शा.पा.समुकपप स्त-३ श्लोक । भी कार्य करने का उस का स्वभाव भी सिद्ध होगा । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-कम ईश्वर को अपेक्षा न कर के स्वयं ही अगत् का कारण होता है-कर्म का ऐसा स्वमाष मानने पर ईश्वर के सम्बनि प्रकारको सपा नहीं मोटी कमर पनिलप मे प्रथवा किसी अन्य हेतु के सहयोग से जगत का निर्माण करता है-ईश्वर का ऐसा स्वभाव मानने पर उस को कृतकृत्यता अर्थात् पूर्णता की आपा होती है । क्योंकि उसे कर्ता मानने पर उस के बीशरापयशी हानि होती है और उसे जगत का कारण मानने पर उस में प्रकृतिरूपता की भापति होती है। क्योंकि सांख्ययोगपर्शन में प्रकृति को ही जगत् का कारण माना गया है । सभापति को इष्टापति नहीं कहा जा सकला बयोंकि ईश्वर जस प्रकृतिरूप होगा तो उसे सविकार होना पडेगा। इस सन्दर्भ में सांस्ययोग की पोर से यह कहा जा सकता है कि ईश्वर को जगत का कर्ता मानने में उपयुक्त दोषों में कोई भी दोष नहीं हो सकता । जैसे. वर को अगत् का कर्ता माममे पर भी उस में प्रकृतिरूपता की मापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि परिणामो कारण को ही प्रकृति कहा जाता है । ईश्वर जगत का परिणामो कारण न होने से प्रकृतिरूप नहीं है। ईश्वर पो जगत्मा मानने पर उस को चौतरापता का विघटन नहीं हो सकता, क्योंकि जन्म इच्छा को ही राग कहा जाता है। पौर ईश्वर को कोई प्रयोअन न होने से उस में जन्य इरादा नहीं हो सकती । निरय इच्छा होने पर भी उस की वीतरागता सुरक्षित रह सकती है. क्योंकि जन्य इच्छा के प्रभाय को ही बीतागसा कहा जाता है । उस का ऐश्वर्य भी जन्य नहीं हो सकता क्योंकि यह सत् तत् फल विषयक नित्य इच्छापही है। सुष्टि के प्रारंभ में रजोगुण का उत्कर्ष होता है-इस कथन से ईश्वर में सगुणता की भी प्रासा नहीं की जा सकती क्योंकि समयानुसार उत्कृष्ट प्रौर प्रफ्कृष्ट होना यह गुणों का अपना ही स्वभाव है। हावर की इच्छा गुणों के यथा समय होने वाले उत्कर्ष और परकर्ष को विषय करती है। इसी से ईश्वर गुरषों में बंधमाका उत्पावक' कहा जाता है। प्रतः ईश्वर को जगत का कर्ता मानने पर उस को कूटस्थता अर्थात निविकारता की हानि नहीं हो सकती'-किन्तु वाल्याकार का कहना है कि यह कथन ठीमा नहीं है । इस कथन पर उन्होंने यह कहते हुए सांख्य को भर्त्सना की है कि ईश्वर को सिंह करने के लिये जो बात अभी कही गई है वह पायदर्शन को मान्यता पर प्राधारित होने से समीचीन प्रतीत होती है। किन्तु उसे अपनी मान्यता के रूप में यदि साहयवादी स्वीकार करते है तो इस से उन की पुरी परम्परा ही कलाकात हो जाती है । तात्पर्य यह है कि (सोरस्यमत में शानादि का प्राश्रय ईश्चर नहीं हो सकता) उस रीति से ईश्वर को सिद्ध करने का प्रपास सार्थक भो महीं हो सकता क्योंकि उक्त रीति से कार्य सामान्य के कारण रूप से ज्ञान या पौर प्रयत्न की सिद्धि होती है। ईश्वर को उक्त मान पादि के प्राश्रयरूप में मतलीकार करना होता है जो सोझ्य की दृष्टि से उचित नहीं है। क्योंकि उनके मत में मान माविका प्राश्रय बुद्धि ही होती है पर नहीं होता। इस मत में बुद्धिस्व ही जान प्राधि कीमाश्रयता का नियामक होता है । और यक्षिात्मस्व को जान मादि की प्राधपता का नियामक माना जापगा तो प्रसे कार्य सामान्य का कारगमूस निश्प झाम मावि पास्माभित होगा इसी प्रकार जम्पशाम भावि मी प्रास्माश्रित ही होगा । इस प्रकार स्पायवर्शन के समान जीव पीर ईश्वर की पढाच प्रसि के प्रति पटावि के उपादान का तद तन् पुरुषीय प्रत्यक्ष कारण है। फलतः तद् सद कार्यों को प्रवृत्ति मौर तक तह कार्य के उपादान का प्रत्यक्ष इन्हीं के दोष कार्यकारणभाव पानायक
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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