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गायक दीका-हिन्दी विधेचना ]
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यायिकीस्तरीत्यापि नेश्वरसिद्धिः । तथाहि-कार्येण तामाधने अायानुमाने नाऽनुकूलम्तकः, तत्तत्पुरुषीयपटार्थिप्रवृसिन्धावच्छिन्न प्रति सत्तत्पुरुषीयपटादिमयप्रकारकोपादानप्रत्यक्षत्येन हेतुत्यावश्यकत्वात् , प्रत्यासत्येन कार्यमामान्यहेतुन्वे मानाभावान , विकीर्षाया अपि प्रश्चावेच हेतुल्यात , तेपि विलक्षणकृतित्वेनैव घटत्व-पटत्वावच्छिमहतुन्याच |
----- - - . . .-- मान्यता सांस्य शास्त्र में भी पा जायगी । फलत: त्रिगुणात्मिका प्रकृति ही जगत का मूल कारण है और उस से उत्पन्न वृद्धि हो जानादि गुणों का प्राश्रय और कर्ता है-यह सब सांस्य दर्शन को माम्यता समाप्त हो जायगी । तो इस प्रकार जो सम्मशास्त्र की मान्यता का प्रमिल होते हुए सांख्य को मोर से विचार करने को उद्यत होता है उसके साथ विचार करना पनुचित है पसलिये इस पर्धा को इतने में ही समाप्त कर देना ठोक है, क्योंकि इसने से ही ईश्वर के सम्बन्ध में सख्यियोग द्वारा प्रशित युक्तियां निर्थक सिद्ध हो जाती है।
(कार्यसामान्य के प्रति उपावानप्रत्यक्ष कारणता को पालोचना) नैयायिकों ने ईश्वर को लिद करने की जो रीत बताई है उस से 'मी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती-जैसे उन्होंने कार्य द्वारा रियर को सिद्ध करने के लिये सर्व प्रथम इस अनुमान का प्रयोग किया है 'कार्य सफ के कार्यत्यत. संपूर्ण कार्य कर्तृ सापेक्ष है क्योंकि कार्य है ।' किन्तु यह अनुमान समीचीन नहीं हो सकता क्योंकि-मो मी कार्य होता है यह सभी कर्तृ सापेक्ष होता है इस नियम का निनायक कोई तर्फ नहीं है। कहने का प्राशय यह है कि कार्यसामाग्य के प्रति सामान्यरूप से उपवान विषयक प्रत्यक्ष कारण है इस कार्यकारण भाव पर हो उक्त प्रनुमान निर्भर है किन्तु स कार्यकारण भाव में कोई प्रमाग नहीं है। क्योंकि इस कार्यकारणभाव को मानने पर भी यह प्रश्न होता है कि पट-उपगवान के प्रत्यक्ष से घटा को और घटोपादान के प्रत्यक्ष से पटाची की प्रवास क्यों नहीं हाती? क्योंकि जब सामान्यरूपले उपावान का प्रत्यक्ष सामान्यरूप से कार्यमापका कारण है तो किसी भी उपादान के प्रत्यक्ष से किसी भी कार्य की उत्पत्ति होना युक्तिसङ्गात है। प्रतः इस प्रश्न का समाधान करने के लिये इस प्रकार का विशेष कार्यकारणभाव मानना होगा कि तत् तत् पुरुष को पटानर्थ प्रपति के प्रति पटावि के उपादान का तद् तव पुरुषीय प्रत्यक्ष कारण है। फलतः सत सात कार्याधों को प्रति पोर तब सद् कार्य के उपादान का प्रत्यक्ष इन्हीं के गोत्र कार्यकारणभाव प्राचायक है। इसी से उमादान प्रत्यक्ष के प्रभाव में कार्योत्पति की प्राप्ति का परिकार हो जायगा मत: 'कार्य सामान्य के प्रति उपादानप्रत्यक्ष कारण है। इस सामान्य कार्यकारणभाव की कोई मायायकता न रहेगी । तो जब इस प्रकार कार्य सामान्य के प्रति उपादानप्रत्यक्ष या उस प्रत्यक्ष का पाषयभूत कर्ता कारण है यह कार्यकारणभाव ही पलित है सो कार्य सामान्य से कर्तृ सामान्य का अनुमान कैसे हो सकेगा।
(कृति और कार्य का भी सामान्यतः कार्य-कारण भाव नहीं है) जिस प्रकार उपावान का प्रत्यक्ष उपयुक्त रौति से प्रवृत्ति का ही कारण है सप्तो प्रकार चिको भी प्रवृत्ति का ही कारण है, का सामान्य का कारण नहीं है। और कृतित्व रूप से कृसि मी कार्यप रूप से कार्य सामान्य का कारण नहीं है किन्तु घटपटादि तब तब कार्य के प्रति कुलाल तन्वाय