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________________ ___४२ } [पास्त्रयातासाचय स्त० ३-रलो.. नच प्रवृत्ताविध घटादावपिशानेन्छयोरन्ययाव्यतिरेकाम्या हतत्वसिद्धेः तत्र घटत्व-पटत्यादीनामानन्त्यात कार्यस्त्रमेत्र माधारण्यात कार्यनावरुछेदकम् , शगंग्लाघरमपश्य संग्राहकलाघघस्य न्याय्यत्यात , कृतम्तु 'यद्विशेषयोः' इनि न्यायात मामान्यतोऽपि हेतुबमिनि वाच्यम्, माविको कति विलक्षण कृतित्व रूप से ही कारण है । कहने का प्राशय यह है कि कार्य सामान्य के प्रतिकृति सामान्य को कारण मानने में घट के लिये होनेवाली कृति से पट की पौर पद के लिये होनेवाली कृति से घट की उत्पत्ति होने की प्राप्ति हो सकती है। प्रतः जिन कृतियों से घट उत्पन्न होता है उन में विलक्षण जाति और जिन कृसियों से पट उत्पन्न होता है उस में बुसरी विलक्षण जाति मानकर-घट पट प्रादि कार्यों के प्रति भिन्न भिन्न विजातीय कृसिया कारण है-यह कार्य-कारणभाव मानना मावायक है । और इस कार्यकारणभाव को मान लेने पर कार्यसामान्य के प्रति कृतिसामान्य को कारण मानने की प्रावश्यकता नहीं रह जाती । इसलिये कार्यसामान्य से उपावानप्रत्यक्ष वा चिकीर्षा अथवा कृति का अनुमान नहीं हो सकता। और इसीलिये का सामान्य के कारणभूत उपावाप प्रत्यक्ष, विकीपर और कृति के प्राश्रयम में जगत् कता र सि नहीं हो सकता। व्यापकरूप से कारणता को सिद्धि का प्रयास-पूर्वपक्ष] इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि जसे उपाबान प्रत्यक्ष और चिकीर्षा रहने पर प्रवृत्ति होती है मौर उस के म रहने पर प्रति नहीं होती है-इस मन्त्रय व्यतिरेक से उपादान प्रत्यक्ष प्रौर विकीर्ण को प्रवृत्तिका कारण माना जाता है उसी प्रकार उपाशन प्रत्यक्ष और चिकीर्षा के अन्यय व्यतिरेक का अनुविधान पद में भी है। इसलिये घटपटावि के प्रति उपावास प्रत्यक्ष प्रौर विकर्षा को कारण मानना प्रादायक है । तो इस प्रकार जब प्रवृत्ति के समान अन्म कार्यों के प्रति उपादाम प्रत्यक्ष और चिकीर्षा की कारणता सित होती है तब घटरव पठत्व मावि मनन्त अविच्छिन्न के प्रति उपावान प्रत्यक्ष और चिकीर्षा को कारण मानने की अपेक्षा कार्यरय रुप सामान्य धर्मायनिधन के प्रति उन्हें कारण मानना उचित है । यदि यह कहा जाय कि-'घटत्व पटत्मावि की अपेक्षा प्रागमावप्रतियोगिस्वरूप कार्यस्व का शरीर ग्रह है प्रतः उस की अपेक्षा लघुरोरो घटत्व पटत्यादि को ही उगवान प्रत्यक्ष और पिकीय का कार्यतापकछेवक होना चित है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि घटरब पटवावि धर्म संपूर्ण काबोका सहपाशक नहीं है और कार्यस्व संपूर्ण कार्यों का संग्राहक है। इसलिये उसी को उपादान प्रत्यक्ष और चिकीर्षा का कार्यताबसाधक मानना न्यायसङ्गत है क्योंकि उसे कार्यताछेवक मानने पर कार्य सामान्य के प्रति जपावाम प्रत्यक्षादि में एक एक कारणप्ता कोही सिद्धि होगी मार घटस्व पटव मादिषों को कारणतावरदेवक मानने पर सद् तइ धर्मावनि के प्रति विजातीय उपावान प्रत्यक्ष और चिकीयों में अनन्त कारणता माननी पड़ेगी। तो इस प्रकार व कार्यसामाग्य के प्रति उपादान प्रत्यक्ष और चिकोर्षाको कारणता सिद्ध हो जाती है तो कार्यसामान्य से कार्य लामान्य के उपादान प्रत्यक्ष और चिकीर्षा का अनुमान होने में और उस के मात्रय रूप में ईश्वर का अनुमान होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। इसी प्रकार घटपटावि कायों के प्रति पृथक रूप से विआतीय कृतियों को कारण मानने पर प्रो-कार्य सामाग्य के प्रति कतिसामाग्य कारण है- यह सामान्य कार्यकारण भाष
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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