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स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
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कार्यकालिन
पत्यादिस्वरूपस्य नानात्वात् ध्वंसव्यावृत्यर्थं देवस्य सवस्य
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विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनानिविगुरुवाच । नामि जन्यसम्वम् अवनिसमवेत या सज्जन्यतावच्छेदकसू तथापि प्रत्येकं विनिगमनाविरहात्, 'यद्विशेषयोः '० इति न्याये मानाभावात् । किञ्च एवं प्रायोगिकत्वमेव शैलादिव्यावृत्तं देवकुलाद्यनुवृत्तं सकलजनव्यवहारसिद्धं प्रयत्नजन्यतावच्छेदकमस्तु व्याप्यधर्मत्वात्, इदमेवाभिप्रेत्य हेतुविशेषयिकल्पने कार्यसमत्वं सम्मतिटीकाकृता निरस्तम् |
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भी सिद्ध होगा क्योंकि पहिशेषयोः कार्यकारणभावः स तत्सामान्ययोरचि' यह सर्वमान्य नियम है। इसका श्राशय यह है कि जिन पदार्थों में विशेषरूप से कार्यकारणभाव होता है उन पदार्थों में सामान्यरूप से भी कार्यकारणामास होता है। जैसे एक घट को उत्पन्न करनेवाले कपाल से अन्य घट को उत्पत्ति का वार करने के लिये त त घट के प्रति तद् कपाल को कारण मानने पर घट सामान्य प्रति कपाल सामान्य कारण है यह भी कार्यकारणभाव माना जाता है, उसी प्रकार कार्यविशेष और कृतिक्षेत्र में कार्यकारणभाव मानने पर कार्यसामान्य और कृतिसामान्य में भी कार्यकारणभाव मानता न्यामसङ्गत है ।
यदि यह कहा जाय कि विशेष कार्यकारणभाव से ही कार्य सिद्ध हो जाने से सामान्यरूप से कार्यकारणभाव की कल्पना कहीं भी मान्य नहीं है। अतः 'पविशेषयोः कार्यकारणभाव: स तत्सामन्ययोरपि यह नियम नियंत्रितक है।' सो यह ठीक नहीं है। क्योंकि जहां कोई कपाल नहीं है वहां fe यह प्रश्न हो कि ऐसे स्थल में घट की उत्पत्ति क्यों नहीं होती है तो इस का उत्तर यह नहीं दिया जा सकता कि ल ल कपाल का प्रभाव होने से घट की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि तस्कपाल के अभाव में भी श्रन्य कपाल से घट की उत्पत्ति होती है। अतः स त कपाल का प्रभाव त त घट की शी प्रतुति का नियामक नहीं हो सकता है। अतः घटसामान्य की अनुत्पति का नियामक कपालसामान्य के अभाव को ही मानना होगा और यह तभी संव है जब घट और कपास में सामान्यरूप से कार्यकारणभाव हो। उसी प्रकार जहां कोई कृति नहीं है वहां कार्यमामान्य को अनुत्पत्ति का नियामक प्रतिसामान्य का प्रभाव है इस बातको उपपत्ति के लिये कार्यसामान्य के प्रति कृतिसामान्य को भी कारण मानना श्रावश्यक हैं। तो इस प्रकार जब कार्य सामान्य के प्रति कृतिसामान्य की काररता पुलिसिद्ध है तब उसके बलसे 'कार्य सफ के कार्यत्वात्' यह प्रतुमान निर्बाध रूप से संपन्न हो सकता है" :
( व्यापक रूप से कारणता को सिद्धि को असम्भव - उत्तरपक्ष)
किन्तु यत् कथन विचार करने पर समीचीन नहीं प्रतीत होता है क्योंकि कार्यत्व भी जो संपूर्ण काका संग्राहक है एकधर्म रूप न होकर कालिक सम्बन्ध से घर पटवादि रूप है। आशय यह है कि कार्यत्व को सफल कार्यों में एक अनुगतधर्म के रूप में तभी स्वीकार किया जा सकता है ज संपूर्ण कार्यों का अनुगम करने का कोई मार्ग न रहे किन्तु ऐसे मार्ग का प्रभाव नहीं है। क्योंकि कालिक सम्बन्ध से घटत्व सभी कार्यों में रहने से समस्त कार्यों का अनुगमक हो सकता है, मतः कालिकसम्बन्ध से घटपटादि से भिन्न कार्यत्व नामक एक मतिरिवत धर्म को सता में कोई प्रमाण नहीं है।