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[ शा.. ममुकायम. -इजो ९
(सामान्यकार्यकारणभावकल्पना में गौरव) फानसः 'कार्यसामान्य के प्रति कृतिसामान्य कारण है। इस नियम का पर्यवसान 'कालिक सम्बन्धसे घटस्वादिमस के प्रति कृतिसामान्य कारण है-इस कार्यकारणमा में होगा। और यह कार्यकारणभाव घटस्यपटस्थावि कापताछेवक व से अनन्त होगा। प्रस:-'घरपटावि तष्ट्त कायों के प्रति पृषक रूप से विजातीय कृति कारण है-इस कार्यकारणभाम से मतिरिक्त उक्त रूप से 'कार्यसामान्य के प्रति कृतिसामान्य कारहा है। इस कार्यकारणभाव की कल्पना गौरवग्रस्त है। इसके अतिरिक्त कार्य-कारण मात्र में गौरव का अन्य हेतु भी है असे कालिक सम्बन्ध से धत्व पटस्वावि धर्म माघभूत वस्तु में रहता है इसी प्रकार धम में भी रहता है और स्वंस के प्रति उपायान प्रत्यक्षाषि कारण नहीं होते पयोंकि उसका कोई अपाकान ही नहीं होला। प्रतः वरुरूप कार्य के प्रति उपाबानप्रत्यक्षादि कारणों का व्यभिचार वारण करने के लिये ध्वंस को उम के कार्यवर्ग से ज्यावत करने के लिये कार्यतावभवककोटि में सत्व-भावश्व का निवेश करना होगा। फलत: मावस्य और घटत्व प्रादि के विशेषविशेष्यमाब में कोई विभिगममा न होने से 'स्वादिविशिष्टमावं प्रति उपावानप्रत्यक्षाविक कारणं' एवं 'मायाबापEEfisदि . क्षाविक कारण इस प्रकार से गुरुतर कार्यकारणभाव की प्रापत्ति होगी।
जन्यत्व अथवा अवछिन्नत्व का निधेश व्यय है। वि यह कहा जाय कि-'भाषक:य की उत्पत्ति प्रध्य में ही होती है गुणादि में नहीं होती इसलिए जन्ममाव के प्रति द्रव्य कारण है यह कार्यकारणभाव मानना बावश्यक होता है। इसके अनुसार जन्यसस्व द्रव्य का कार्यतावच्छेदक होता है। अन्यसश्व का अर्थ है जन्यायधिशिष्ट सपथ । इस में जम्बरप का नियम निरप भावगवाओं को व्यावृत्ति के लिए किया जाता है और सत्व का निवेश ध्वंस की ब्यावृति के लिए किया जाता है। मित्य भाषपदार्थों की प्यावृति के लिए जन्याय के बले अर्वाच्छन्नत्व का भी निवेश किपा मा सकता है । प्रवच्छिन्नत्य का अर्थ है कालावस्छिन्नत्य अर्थात् किञ्चितकालतित्व । इस प्रकार द्रव्य का जन्यतावश्यक जन्यसत्व मा किश्मिकालवृत्ति समवेतत्व होता है। उप्ती को उपादान प्रत्यक्ष विकोर्षा और कृति का कार्यताघधक माम कर अन्यभाव सामाग्यके प्रति उचाधाम प्रत्यक्ष प्रावि को कारण माना जा सकता है.तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्व के संबन्ध में यह बात पूर्ववत काही आ सकती है कि अश्यष अतिरिक्त धर्म न होकर विनिगमना विरह से कालिफसधेन घटत्व-पटरव प्राविरूप ही है । इसीप्रकार प्रमत्व के संबंध में भी कहा जा सकता है कि प्रसिधनत्य विभिगमनाविरह से सब तब घटाविरुप को तत् तत् काल. तन्निरुपितत्तित्व रूप है इसलिए पूर्वोक्त दोष से निस्तार अशक्य है ।।
(सामान्पाभाव विशेषाभाषकूट से अन्य नहीं है। इस सन्दर्भ में 'पविशेषयो कार्यकारणभाव: स तस्सामाम्ययोरपि' इस न्याय से कार्यसामान्य मौर कृसिसामान्य में कापंकारणभाष सिद्ध करने का जो प्रयास किया गया है वह मी सफल नहीं हो सकता क्योंकि उस न्याय में कोई प्रमाण नहीं है । उस न्याय के समर्थन में जो यह बात हो गई है कि जिस स्थान में कोई कपाल नहीं है उस स्थान में कपालसामा घ.नाव को घट सामाग्य की अनुस्पति का नियामक सिद्ध करने के लिए एवं जब कोई कृति नहीं है उप्त समय कृतिसामान्याभाव को कार्यसामान्य की अनुत्पति का नियामक सिद्ध करने के लिए 'षट सामान्य के प्रति कपालसामान्य