SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ ] {शा बा. समुरुपय न० ३-श्लोक-२५ उपचपमाहमूलम-नानुपादान मन्यस्य भावेऽन्यजातचितवन । भगवानलायां च न तस्वीकान्तनिष्पना ||२४॥ अनुपादान तथाभाविकारण रिकलम् , अन्याय पधा तथाभाविन्यतिरिक्त प्रयानम्प, भावनिधान, अन्यम् कान्नाऽविद्यमान महदादि; जातुचिन कदाचित । न भवेत । सर्वथाऽमन ससाऽयोगात् । तद्पादानतायां च महदादेग्भ्युपगम्यमानायां न तस्यःप्रधानम्य, एकान्तरित्यता, अनिन्यमहादाभिन्नन्वान । 'महदायणि सदामासाद् नियमेव 'नि चत ! मना महिं प्रकृति-विकृत्पादिप्रक्रिया, मुक्तावपि तत्माऽपशनं च । 'महदादे: प्रकृतिपरिणामित्वेन प्रकल्पनिषत्वेऽप्यनित्यवादिना भेद एवेति चेन् ! सहि मैदानमा इति दिग् ॥२४॥ (प्रकृति को महत का उपादान मानने में अनित्यता को प्रापत्ति) २४ वौं कारिका में पूर्व कारिका में कहे गमे प्रथ को हो संष्टि की गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है - मला मादि कार्यों को पनि उपादानहोन माना जायगा अर्थात यदि उस का कोई ऐसा कारण नहीं माना जायगर मिस में महत् प्रानि को उत्पत्ति के पूर्व में भी मात प्रावि का अस्तित्व होता हो, तो कारण में मषिम्रमान ही गस्त को उत्पत्ति माननी होगो । पालतः प्रधान का समिधान होने पर भी उस में प्रथमतः प्रविधमान होने के कारण महतमादिको उत्पत्ति न हो सकेगी कोंकि जो सर्वथा प्रसत् होता है वह कमी सत् नहों हो सकता है । भीर र प्रधान को महत आदि कार्यों का उपाबान कारण माना जाम्या, और कारगारूप में उस में महत प्रावि का अस्तित्य माना जायगा तो प्रधान की एकान्त निस्पता का भंग हो जायगा. क्योंकि उपानानकारण और कार्य में प्रमेय का नियम होने से प्रधानरूप उपादान कारण भी अपने कार्य अनित्य महत भाबि से प्रभित्र होने के कारण कार्यात्मना अनित्य हो जायगा। यदि कहें कि-महन प्रानि भी सर्धवा सस होने से नित्य ही होता है'-तो महा प्रावि सस्य और प्रकृति में कार्य कारण भाव की मान्यता समाप्त हो जायगी । और मत प्रादि नित्य होने पर मोक्षकाल में उस का अस्तित्व मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। इसप्रकार महयन कपमान बन जायगा -महत प्राधि प्रकृति का परिणाम है और परिणाम परिणामी से भिन्न होते हुए भी अतिश्य होता है इसलिए महवावि प्रकृति से प्रभिन्न होने पर भी अनिस्य होने से प्रकृति से मित्र होगा. मत एस महान मावि का अपने प्रभिस्पतरूप में सर्वदा सत् न होने से न तो उसे प्रकृति का कार्य होने में कोई पाषा होगी और न मोक्ष काल में उस के प्रस्तित्व का प्रसंग होकर सस्य सिद्वान्त की हानि होगों सो मह कपन कोक नहीं है पर्योंकि ऐसा मानमे पा. एक ही वस्तु में मेव और प्रमेव का 'प्रसंग होमे से सोधप को स्यावाब वा अनेकान्तबाव के द्वार पर दीवारिक बनना परेपा ।।२।। .
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy