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________________ 1.३०विदेगा । [१०१ ग्न्यिाशयः । बागाइ-इति चेत , 'ननु' इत्याशेपे, सम्प-प्रधानन्य साम्बे-नियनस्वरूपाऽविनन्वे नत्-पदाचिजननस्वभावग्यम कृतः ? एकरूपा हि प्रकृतिः सदैव महदादि जन येत , कदापि वा न जनयेन् । 'तमकालावनिकमजनना-जननोमपनिरूपिनकम्वभावस्वाश्यमदोष' इति मत ? जनमा-जननयोस्तकालावच्छिमन्ये नस्वभावधम , मम्वभावत्वे म तपोस्तमित्यन्योन्याश्रयः । बरूवभायादेव तयोलमे व विलीनं प्रकृत्यादिप्रक्रिययति भावः ॥२३॥ मादि को उत्पन्न करने के लिए यदि प्रधान में कोई मई घटना प्रावासक न होगी तो उस से मिपत समय में ही मस्त प्रावि की उत्पत्ति न होकर सर्ववो उस की उत्पत्ति को मापत्ति होगी। प्रतः प्रकृति से एक साथ की समुझे आत के जन्म की प्रसक्ति होगी. क्योंकि प्रधान में यदि जगत को उत्पन करने का सामपं है, तो जगत् की उत्पत्ति का बिलम्ब नहीं हो सकता. क्योंकि सो जिस कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है वह उम को उपस्थिति होमे पर कार्य के उत्पावन में विलम्ब नहीं करता जैसे न्यायमस में कम विभाग को उत्पन्न करने में समर्थ होता है तो कर्म से विभाग को उत्पत्ति में विलंब नहीं होता। फर्म के दूसरे क्षण में ही विभाग का जन्म हो जाता है । यदि यह कहा जाय कि-'प्रधाम में माहस प्रादि को नियतकाल में ही उत्पन्न करने का सामय है अतः सर्वदा जस की पत्ति का प्रसंग नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रधान यदि अपने सहन स्वरूप में कुछ भी विकृत हुए बिना ही महत माविको उत्पन्न करेगा तो नियसकल मैं भी वह महत् प्रालिको उत्पन्न न कर सकेगा । कहने का आशय यह है कि प्रकृति यवि तर्षदा एक रूप ही रहेगी उसमें किंचित् मी कोई नई बात नहीं होगी वह अपने सहज सातम रूप में हो रह कर महत प्रावि का जनक मानी जायगी तो उस से या तो सर्वदा महत् प्रादि की उत्पत्ति होगी प्रषमा कमी मी नहीं होगी 'पयोंकि कमी उत्पन्न करना और कमी उत्पन्न न करना यह बात किसी पागम्तुक निमिस की अपेक्षा के बिना नहीं बन सकती। [ जमन-प्रजनन उभयस्वभाव में अन्योन्याश्रय ] यदि यह कहा जाष- प्रकृति का यह सहज स्वभाब है कि किलो काल में महत् प्रादि का जनन करेंचौर कालासर में उस का जनन न करे। अत: प्रधान से महत मावि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उक्त आपत्ति नहीं हो सकती है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि महा मावि के जनन और मकान में हत्तरमालावचित्रत्व सिद्ध हो जाने पर ही प्रकृति में ससस्कालावच्छेवेन महत का जनम मोर अजान करने के स्वभाव की कल्पना हो सकेगी और इस प्रकार का स्वभाव सिद्ध हो जाने पर ही उसके वस्त्र से महत प्राषि के जनन पौर प्रजनन में ततकालावनियमाव लि हो सकता है इस में अन्योन्याभप है। इस पन्योन्याश्रय दोष के कारण यह कल्पना संभव नहीं हो सकती । मवि इस पन्मोम्याभय का परिहार करने के लिए महत मावि के जलन और प्रजनन में तत्तकालाग्छिन को भी स्वाभाविक मान लिया जायपा तो प्रकृति से महत और महत से महंकारादि की उत्पत्ति को को प्रक्रिया साल्य में वर्णित है वह मनापायक होने से समाप्त हो जायगी, क्योंकि समी कार्य प्रपने स्वमान से हो तप्तकाल में संपन्न हो जायेंगे ।।२३।।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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