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________________ [शा- पा समुनय स्वर-३ श्लोक-१८ पार इन्द्रियाणाम् , विफल्पस्तु मानसः, अभिमानोऽहकारस्य कृत्यभ्यवसाये बुद्धः, सा हि पुद्धिरमवयवती, पुरुषोपरागः, विषयोपारागः, व्यापाराधेशव हन्यंशाः । भवति हि 'ममेदं कर्तव्यम्' इति धेरध्यपसायः। तत्र 'मम' इति पुरुषोपरागः दपणस्यैव मुखोपागा, भेदाऽग्रहादताविक । इदम्' इति विषयोपरागः, इन्द्रियप्रणालीक्या परिणनिमदो दर्पणम्येव सुखनिश्वासहतस्य मलिनिमोपरागस्ताधिकः । तदुभयोपपत्ती व्यापारावेशोऽपि । तत्र विषयोपरागलक्षणज्ञाने पुरुपोपरागस्याऽत्तास्विकसंबन्धो दर्पणप्रतिविम्वितस्येव मुखस्य तन्मलिनिम्नति । [ पुरुष और बुद्धि का तात्त्विक भेव ] असि और पुरुष में प्रत्पन्त भेद है। फिरतु उसका प्रहान अमादिकाल से पाना पा रहा है और उसी कारण वृद्धि चेतनो शिEETर ६ गवताय होता है। सच मात मह है कि इस पथ्यवसाय को उपपत्ति के लिधं ही स्वाभाविक चतन्यरूप पुरष का मस्तित्व मानना प्रावश्यक होता है । यदि उसे न माना जायेगा तो उपस अध्यवसाय के रूप में वृद्धि में छप्तन्य का अमिमान न हो सकेगा, क्योंकि वृद्धि प्रवेतन प्रकृति से उपभूत होने के कारण स्वयं प्रवेतन होली है। उक्त अध्यघसाथ तीन मापारों से सम्पन्न होता है-इन्द्रिय व्यापार, मनोव्यापार और महाकार व्यापार । प्रिय व्यापार का नाम है मालोचन मोर मनोव्यापार का नाम है विकल्प एवं अहंकार पागर का नाम हैलिनान । प्राशय यह है कि इन्द्रिय से वस्तु का पालोचन होता है । प्रौर मन से उसका विकल्पत मानी विशिष्ट बोष एवं प्रहंकार से उसके कर्तृत्व का अभिमान होता है। और इन तोमों के सम्पन्न होने पर बुद्धि में नेतनामहं करोनि' इस प्रकार फुति का अध्यबसाय स्वस होता है । ( पुरुष-विषय व्यापार का बुद्धि सम्बन्ध ) बुद्धि में तीन अंश होते हैं। जिन्हें पुरुषोपराग, विषयोपराम पोर व्यापारावेशश कहा जाता है। पुरुषोपराग का प्रर्थ है पुरुषसम्बन्ध, विषयोपराग का अर्थ है विषषलम्बन्ध एवं व्यापाराबेश का अर्थ है व्यापार सम्बन्ध । जैसे 'ममे कर्तव्यम्घा मेरा कर्तव्य है इस प्रकार मा मध्यवसाय मुद्धि को होता है। इस अध्ययसाय से अद्धि के उक्त तीनों अंगो का स्पाट परिचय प्राप्त होता है। जैसे 'मम' से पुरुषोपराग भूचित होता है। यह उपराग वृद्धि और पुरुष में भेरमान न होने से ठीक उसी प्रकार मिश्या होता हे असे वर्षरग में मुख का प्रतिविम्बरने के समय वरण के साथ मुख का सम्बन्ध मिथ्या होता है। ' से पति के साथ विषयोपराग सूचित होता है। बुद्धि के साथ विषय का ग्रह सम्बन्ध इत्रिमद्वारा विक्याफार वृद्धिका परिणाम रूप है, यह ठीक उसी प्रकार सत्य होता है जैसे वर्षण पर मुख के निवास का प्राधात होने पर उसके साथ मलिनताका सम्बन्ध । यह सर्वविदित है किषण में प्रतिविम्ति मुल का नि:श्वास जब दर्पण पर पड़ता है तो दर्पण बास्लम रूप से मलिम हो जाता है। वृशि के लाय पुरुष और रिषय का उपराग होने पर उस में ज्यापारवेश प्रर्थात कृति का सम्प्रध भी सम्पन्न हो जाता है । प्रमो यह कहा गया है, कि विषयोपराग विषयाकार वृद्धि का परिणाम रुप जिसे ज्ञान कहा लाता है। साथ उसका सम्बन्ध सत्य है। यदि का पुरष के साथ __ मेवतान न होने से डिगत इस ज्ञानाएमक विषपोपराग का पुरुष के साथ भी सम्बन्ध होता है किन्तु यह सम्यग्य सत्य महोकर यह ठीक उसी प्रकार मिथ्या होता है जैसे मुख के नि:श्वास से वर्षण में उस मनिता का वर्ष में प्रतिविम्बित मुन के साथ सम्बन्ध मिण्या होता है।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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