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स्पा० क० टीका- हिन्दीषिवैचना ]
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व्यासङ्गानुपपतेः । अतो यत्संबद्वेन्द्रियस्य विषयचैतन्यावच्छेदनियामकत्वम् यापाराच्च सुमादिन्द्रियादिव्यापार विस्तापि श्वास-प्रश्वासादि तद् महत्तत्वम् । तस्य धर्मा ज्ञाना-ज्ञानश्वर्या-ऽनैश्वर्य-वैराग्याऽर्थे राज्य-धर्मा-धर्मरूपा अष्टौ बुद्धि-सुखदुःखेच्छा-द्वेष प्रयत्ना अपि, भावनायास्तैरनङ्गीकारात् , अनुभवस्यैव स्मृतिपर्यन्तं धूक्ष्मरूपताऽवस्थानात् । तस्य ज्ञानरूपपरिणामेन पद्ध दिपयः, पुरुषस्य स्वरूपतिरोधायकः । एवं च बुद्धिनाशादेव पुसो विषयाच्छेदाभावात् मोक्षः। भेदाऽप्रान्त 'चैतनोऽहं करोमि इत्यध्यवसायः, अचेतनप्रकृतिकार्याया बुद्धेश्चैतन्याभिमानानुपपत्यैव स्वाभाविकचैतन्यरूपस्य पुंसः सिद्धेः । आलोचनं व्याहोगा श्रभ्य विषय दृष्ट नहीं होगा-' तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर जब किसी इसिय द्वारा किसी एक विषय का संतन्य के साथ सम्बन्ध हो जायगा तब विवान्तर का उस इन्विम द्वारा चैतन्य के साथ सम्बन्ध न हो सकेगा। क्योंकि उस विषय के साथ उस इन्द्रिय के सम्बन्ध का कोई विछेवक न होगा। फलतः विभिन्न विषयों में विभिन्न विषयों के साथ न्द्रिय संपर्क रूप इन्द्रिय का माङ्ग न हो सकेगा। जिसका फल यह होगा कि जब एक वस्तु दृष्ट होगी तो वह अकेली हो सका दृष्ट होतो रहेगी । ग्रन्य वस्तु के इष्ट होने का अवसर हो न हो सकेगा । और जब बुद्धि द्वारा इन्द्रिय और विषय का एवं दिवय मोर पुरुष का सम्बन्ध माना जायगा तब ये मापत्तियां न होगी । क्योंकि वृद्धि का दलिय के साथ सम्बन्ध और इन्द्रिय का विषय के साथ एवं विषय का चैतन्य के साथ सम्बन्ध होने पर विषय का दर्शन मान्य होगा । अतः इन्द्रिय और विषय तथा इश्रिय द्वारा विषय और पुरुष का सम्बन्ध वृद्धि के अधीन होगा। इसलिये बुद्धि के व्यापार से व्यासङ्ग की
पति हो सकेगी और उसी का संपर्क न पाने के कारण इप्रिय का व्यापार न हो सकने से वुप्ति हो सकेगी और उस समय उसी के व्यापार से श्वास-प्रश्वास आदि क्रियाएं भी हो सकेगी । इसलिए fan की ण्टता और प्रष्टता तथा सुषुप्ति एवं सुप्ति के समय स्वासप्रश्वासादि और पुरुष के मोक्ष की पति के लिये वृद्धि महत् तस्म को मानना अनिवार्य है।
[ बुद्धिगत धर्मों का निरूपण ]
इस बुद्धि में माठ धर्म रहते हैं। जैसे ज्ञान अज्ञान, ऐश्वयं धनंश्वर्य, वैराग्य-अराग्य, वर्मइनके अतिरिक्त बुद्धि में सुख-दुःख इच्छा, ईष और प्रयत्न भी होते हैं। भावना पदार्थ सदनों के विज्ञानों द्वारा मान्य नहीं है। प्रसः बुद्धि महत्तव में भावना का अस्तित्व नहीं माना जा सकता । साक्ष्य मत में अनुभव हो समरूप से स्मृति पर्यन्त रहता है। अतः श्यावस्थापन मनुमव से अतिरिक्त भावना संस्कार मानने की कोई आवश्यकता नहीं होती। महल का इन्द्रियादि द्वारा विषयों के साथ सम्बन्ध होने पर उसका विषयाकार परिणाम होता है जिसे तथा बुद्धि की वृत्ति कहा जाता है। इस ज्ञान के द्वारा ही विषय पुण्य से सम्बद्ध होकर पुरुष के स्वरूप को मात करता है । विषयों द्वारा इस प्रकार होनेवाला पुष का प्रावरण ही उसका बन्धन है। एवं महत्तत्व का नाश होने पर मर्यात् मह्तव का मूलप्रकृति में लियाम होने पर बुद्धि के विषयाकार परिमम ज्ञान की निबुसि होने से पुरुष के साथ विषयों का सम्बन्ध बन्द हो जाता है। इस प्रकार विषयों से का तिरोधान बन्द हो जाने से पुरुष का मोक्ष सम्पन्न होता है ।
पुरुष के