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________________ [शा जान मुगदर रू-३ श्लोक ततो बुद्धचपरनामझ महत्चस्वमुत्पधने, न हि चैतन्यस्य स्वभावतो विपयावच्छिमत्वम् , अनिर्मोझापसेः । नापि प्रकृत्यधीनं सन् , तस्या अपि नित्यतया तदोषानुद्धारात् । नापि घटादिवाऽऽहत्य चैतन्यावछिन्ना, राऽप्रतस्वानुपपचे । न पेन्द्रियमानापेक्षो घटादिचैनन्यावच्छेदा, स्वीकार्य नहीं हो सकता । अपितु कपाल घट हो गया, सन्तु पट हो गया, मुवर्ण कुमाल हो गया' इन सार्वजनिक प्रतीतियों के अनुरोध से अवयव पौर प्रवयवी का तादात्म्य ही सिद्ध होता है। इन सब युक्तियों का निष्कर्ष यह है कि महतस्वादि पदार्थ कार्य है अत एव उत्पत्ति के पहले उनका अस्तित्व मानमा प्रावश्यक है और यह मस्तिस्व किसी प्राधार में ही हो सकता है। अतः महवादि कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व जिस प्राधार में विद्यमान होंगे उसी का नाम प्रकृति है। इस प्रकार सत्कार्यवाव की उपपत्ति के लिये प्रकृति का अस्तित्व मानमा मनिवार्य है। [ महत्तत्त्व से चतन्यावरच्छेद और श्वासावि का नियमन ] प्रकृति से महत्ताव की उत्पत्ति होती है जिसका दूसरा नाम बुद्धि है। इसी के द्वारा पतन्मस्वरूप पुरुष के साथ विषयावच्छिन्नत्य लक्षण विषम का सम्बन्ध मनता है । पवि उत्त का अस्तित्व न माना जायगा तो पुरुष के साथ विषय का सम्मान स्वाभाविक मानना होगा और उस स्थिति में विषय और पुरुष का सम्बन्ध विच्छेद न हो सकने से पुरुष का कभी मोक्ष न हो सकेगा । मौर पनित्यति को सत्ता स्वीकार कर उसके द्वारा पुरुष के ताप विषय का सम्बन्ध मानने पर बुद्धि को नियुक्ति होने पर विषय के साथ पुरुष के सम्बन्ध का विधेद संभव होने से पुरुष के मोक्ष में कोई बाधा नहीं हो सकती । वृद्धि का पस्तित्व न मानकर पुरुष के साथ विषय का सम्बन्ध यदि प्रकृतिद्वारा माना आय तो पुरुष पौर विषय का सम्बन्ध स्वाभाविक तो नहीं होगा किन्तु उसका उच्छेद इस पक्ष में मी न हो सकेगा, क्योंकि प्रकृति नित्य है । अतः उसकी निवृत्ति कमी मी संमवित न होने से उसके द्वारा पुरुष के साथ विषय का मो सम्बन्ध होगा उसकी मी कमी निवृत्ति न हो सकेगी। फलतः इस पक्षमें मो पुरुष का मोक्ष न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि-सभ्यस्वरूप पुरुष के साप घटादि विषयों के सम्बन्ध को किसी मध्य के पारा न मानकर सोधे विषयप्रयुक्त ही माना जाप तो मह मापत्ति नहीं हो सकती क्योंकि विषयों के प्रतिस्य होने से पुरुष के साथ उसका सम्बन्ध भी प्रनित्य होगा और विषयों की निवृत्ति होने पर उस सम्बन्ध की निवृत्ति हो जाने से पुरुष का मोक्ष होने में कोई बाधा न होगी-। किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि वेतन्य के साथ विषषों का प्रन्मनिरपेक्ष सम्बन्ध मानने पर सभी विषय चैतन्य से सम्बद्ध होंगे, मतः विषों में प्रार-प्रष्ट का मेद न हो सकेगा । प्रति जितने विषय एक काल में विद्यमान होंगे ये सब चैतन्य से स्वतःसम्बन होने के कारण रष्ट ही होंगे। उनमें कोई प्रष्ट म हो सकेगा जबकि स्थिति यह है कि अब एक वस्तु रष्ट होती है तब दूसरी वस्तु प्रष्ट रहती है। जैसे पटावि के दर्शनकाल में पटावि प्राण्ट रहता है । यदि यह कहा जाय कि-'तन्य के साथ घटादि विषयों का सम्बन्ध इम्मिय द्वारा मामले से इस प्रापसि का परिहार हो सकता है, क्योंकि इन्द्रिय के परमापक होने से उसके द्वारा सभी विषयों का वेतन्य के साथ एकसाथ सम्पब म हो समेगा । मत: जिस समय जो विषय इग्निय द्वारा तम्म से सम्बन होगा उस समय ही विषयम
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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