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[ शा० वा समुचय-स्त. २-लोक ५८
मन्नै बाउरष्टस्य जनकत्वाद, तत्तदृष्टाऽन्यान्वेन ममानाधिकरणकर्मजन्यत्वे गौरवान् । एतेन श्येनान पापछयाभ्युपगमोऽपि परास्ता इति न किनिदेनन् ।
ये तु-"श्यनेऽपि वलवदनिष्टान नुवन्धित्वं न बाधितान्वयप , न हि सा हिमा, अदृष्टाद्वारक्रमरणोद्देश्यकमरणानुकूलव्यापारस्यैव हिंसात्वात् । गङ्गामरणार्थक्रियमाणत्रिमध्यस्सयपाठवारणाय 'अष्ट्राऽद्वारक' इति विशेषणम् . कूपकत देवात कुपपतितमोहिमायारणाय 'मरणोदेगक इति । नथा व श्पेनस्याऽपि न निपि.त्यम्" इत्याहुः
तेषां हिंस्त्राणामपूर्वा हिंसारसिकता, यथा श्यनक गपि वैरिमरणप्रयोजकानपालाफत धेन शिष्टत्यमनुमतम् । अनर्थप्रयोजकेऽपि निपेबिधिप्रवृनी च प्रतिज्ञाबाध इति । न प माष्टरमा कर सोक्तिमान के लिये तक्ष मष्ट से भिन्न प्रहाद के ही प्रति कर्म को समानाधिकरण्येन कारण मामा जाय तो कार्यतावच्छेदक में गौरव होने से यह कार्यकारणभाव मान्य न हो सकेगा। सोलिमें यह मी कल्पना करना उचित नहीं है कि-'श्येनयाग से दो पाप उत्पन्न होते हैं, एक गनु में और दूसरा श्येमाकर्ता में क्योंकि-ऐसा मानमे में गौरव है जो समामारिएक होने से स्वीकार्य नहीं हो सकता । प्रतः श्येन में और हिसासाध्य अग्निष्टोम प्राधि में मनर्षसाधनत्व का मभाव सिद्ध करने का ऐसा कोई भी प्रयास उचित नहीं हो सकता।
[प्रदृष्टाद्वारक परपोद्देश्यक ध्यापार हिंसा'] फुव विधानों का कहना है कि-"येनपाग में भी बलवनिष्टाऽजमकस्य का अन्वम बाधित नहीं हैराश्येतविधिले पाय और कृतियापा के साथ श्येन में बलवमिण्टाजनवका भी बोष होता है । प्रतः यह भी हिलारूप नहीं है, क्योंकि जो व्यापार मरणोपयक होता है तथा प्रष्ट कोद्वार बनाये किनाही मरश का सम्पादक होता है वही व्यापार हिंसा काहा जाला । श्येन तो भदृष्ट द्वारा ही भररण का सम्पादक होता है, अतः उसे हिंसा नहीं कहा जा सकता। हाँ, हिंसा के लक्षण में से यदि माझाएकाप-प्रमट कोहार बनाये विना हो' इस मंशको निकाल जाय तो श्येन भी मवश्य हिसाझप हो सकेगा, किन्तु उस मंश को लक्षण से पृथक नहीं किया जा सकता, श्योंकि उसे लक्षण में से निकाल वेने पर गंगा में मरण होने के उद्देश्य से तीनों सध्या-प्रातःमध्याहौरसायं के समय गहगास्तोत्र प्रावि का जो पाठ किया जाता है, वह भी हिसा हो जायपा। इसी प्रकार हिंसा के उससक्षरण में 'मरणोपयक' इस नशा का रहना मी मावश्यक है, क्योंकि यदि उस ब्रा को लक्षण से पृथक कर दिया जायगा तो फूपनिर्माण भी हिसा हो जायगी क्योंकि कप में गिर जानेवाली गौ के मरण का यह प्रयोजक है और उस मरण में प्रष्टरूप द्वार की अपेक्षा नहीं होती। किन्तु 'मरसोद्देश्यफ' इस अंश को लक्षण में रखने पर यह दोष नहीं होता, क्योंकि कप का निर्माण इस उद्देश्म से नहीं किया जाता कि इस निर्माण से सम्पन्न होने वाले फूप में गौ प्रादि पषु गिर कर मरें, प्रतः मेनविधि से श्येन में भी बलबदनिष्टाजनकरव का वोष होने से वह भी 'न हिस्यात् सर्वाभानि' इस निषेधषिधि का विषय महीं होता, फलतः त्वङ्ग हिंसा के समान पह मी पापजनक नहीं होता-"