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म्याक टीका और हिन्दी चिवेधन ]
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पगमे न किश्चिद पाधकम् ।-'यो यद्गतफलार्थितया क्रियते, स नगकिश्चिदतिशयजनक' इनि नियमान् शत्रुबधार्थिनया क्रियमाणं श्येनजन्यारटं पापरूपं शनायेव स्वीक्रियन'-इति चेत ? कथं तनिक नग्काऽषामि. एनसस्य श्येनथ्यापारतायामन्यत्राऽप्यष्टोछेदप्रसंगान , शनिष्ठपारस्य च भोगेन नाशान् | न चायं नियमोऽपि, कर्मणः समानाधिकरण
[श्येनयाग-प्रग्निष्टोम फल के प्रति समाम] प्रस्तुत रिवार के प्रम में यदि यह कहा जाय कि-'अग्निष्टोम प्रादि मानों में वेवात्मक प्रमाण से स्वर्गजनकस्य सिद्ध है प्रतः उस के पिरोध के कारण उसके मनमुत हिसा में बलवनिष्टजनकत्व नहीं माना जा सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर वेसिन पभिचारजनकरव के कारण श्वेनयाग में मी बलनिष्टजनकरन का त्याग करना होगा । फलतः वह भी अनर्थ का साधन न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि-'वेनजन्य अष्ट फो बाध और नरक दोनों का जनक मामले में कोई विरोध नहीं हैं-सो कत्वजहिसा से होनेवाले प्रहष्ट को भी इष्ट और प्रनिष्ट पोतों का जनक मानने में क्या माया हो सकती है ? मदि यह कहें कि-एक परष्ट को स्वर्ग और नरक का जनक मानने में पृण्यत्व और पापल्य में साहूयं होगा तो यह कयन नैयायिक को ही संकट का कारण हो सकता है। माहतों को महों, क्योंकि प्रानत मत में ऐसे कमो से पापानुबन्धी पुण्य का बध माना जाता हैं प्रतः गयेन और अग्निष्टोम दोनों को समानरूप से इष्टप्रयोजकमात्र मान कर दोनों को पनर्थ का भी प्रयोजना मानने में कोई बाधा नहीं हो सकती।
[येन से शत्रु में ही अष्टमनन का खण्डन] कुछ लोगों का इस विषयमें यह कहना है कि-"शवष के लिये विहित श्येनयाग से पापल्प मरष्ट की उत्पत्ति शत्रु में ही होती हैं, श्येनफर्ता में नहीं होती, क्योंकि यह नियम है कि-जो कर्म जिस प्राश्रय में किसी फल को उत्पन्न करने के अभिप्राय से विहित होता है वह कर्म उस में किसी प्रतिशय-मदृष्ट को उत्पन्न करता है-" किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर श्येनकर्ता को नरक की प्राप्ति न हो सकेगी,क्योंकि श्येनकर्ता में प्राशुविनामो श्येनघाग का कोई व्यापार न रहेगा। यवि पह कहा जाय कि- येनयामका में होने वाला श्येनश्वंस ही नरफ के जगम में स्पेन का द्वार है । अतः यह प्रापस नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं हो सकता क्योंकि एकत्र कर्मश्वंस को कर्म व्यापार मानने पर अन्यत्र भी कर्मध्वंस को हो कर्म का व्यापार मान लिये जाने की सम्भावना से कमव्यापार के रूप में प्रदष्ट की सिद्धिशी असम्भव हो जायगी।
यदि यह कहा जाय कि-"शनिष्ठ पाय हो श्येन का द्वार है और वह स्वजनकायेनकदृत्व सम्बर्ष से नरक का कारण है अतः इससे पयेनकता को नाक की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं हो सकती"-तो यह होक नहीं हो सकता वमोंकि शत्रुगत पाप का शत्रुगत भोग से नाग हो सकता है, प्रतः श्येनकर्माको नरक को प्राप्ति होने तक उस का अस्तित्व सन्दिग्ध होने से उसे बार मानना सम्भव नहीं हो सकता। सच बात तो यह है कि उक्त निषम भी मप्रामाणिक हैं क्योंकि प्ररष्ट पौर कर्म में सामानाधिकरण्येम कार्यकारणभाव होता है प्रसः कर्म से ष्यधिकरण प्रष्ट की उत्पत्ति नहीं हो सकती । मोर पदि कुछ