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________________ [शास्त्रयामसिमुनय-१ लीक ge पमेन 'नेन रूपेण निमिनमाथिकी, इनि न शक्याथैन्यागः' इत्यपास्तम् , अर्थनः कन्वमहिमायां चलयदभिधान नुवन्धित्यस्यैवाऽसिद्धः, श्वेन इव नत्र सामान्यमिपंधवाधादेव तदनन्ययात् 'श्येने तदनन्ययप्रयोजक तात्पर्यम् , त्वगहिसायौ तु न तत्' इति कल्पनागोरवे हिंसारसिकत्वं त्रिनाऽन्यम्य बीजम्याऽभावात् । अथानीयोमादेः म्बर्गजनकन्यं श्रुतं तदङ्गहिमाया बलदनिष्टानुवन्धित विरुध्यादिति चेत् । श्येनम्याभिशारजनकन्वमपि कि न तथा १ । 'श्यनजन्याऽदृष्टस्य शयधनाकोमयजनकत्वात न विरोध इनि चेत् ? तहि क्रयङ्गहियाजन्याऽदृष्टस्यापीशानिष्टोमयजनकस्वमङ्गीक्रियताम् । “ग सति पुज्यन्य-पापन्ययाः मामिपनि चन् । तदिदं नवेच गंकटम् । अस्माकं तु फापानुबन्धियविकिनिदिनाना नानीबादीलामिष्टप्रयोजकत्वमात्राभ्यु न होने से शामिलस्त्र विशिष्ट अमावास्याय और अमावास्यास्वविशिष्ट रातिभिन्नत्व इन दो रुपों से निमित्तता के स्वीकार्य होने स गौरव की आपत्ति होती है। ऐसे लोगों के प्रति व्याख्याकार का कहना कि उन्हें इस चिन्तन में मी मनोयोग देना चाहिये कि 'अग्नीषोमीयं पशुमालमेल' इस विशेष विधि के अनुरोधसे 'न हिस्यात, सर्वाभूमानि' इस मामाम्य निषेध में सकोच मानकर कायणमिन्नसाय रूप से हिला को निषेष्म मानने पर क्रत्वभिन्नत्व और हिसाव के परस्पर विशेन्यविशेषणभाव में विनिगमना न होने से कावळभिन्नत्य विशिष्टहिसाव और हिसास्वविशिकरबहामिलव इन दो रूपों में हिसा को निषेध्य मानने में गौरव होगा । अतः सामान्यनिमध में संकोच मानना होकमही है, अपितु यह मानना लोह होगा कि सामान्यमिांध सं हिसारवरूप से हिलामात्र में श्रमसाधनत्व का बोध होता है और रबमा हिंसा में उस के विधिवावय से रेवल साधनस्य और कृतिमाध्यत्व का ही बोध होता है, बावनिष्ठाव का बोध नहीं होता औसा कि स्पेनयाग के विधि के सम्बन्ध में माना जाताह । ऋत्य हिसा में एलवनिम्ताजनकन्या का बोध न होने पर भी केबल अष्टसाभस्व और कृतिलाध्यक्ष के हो कोष से प्रति उसो प्रकार हो सकेगो जैसे पेनयाग में होती है। इस प्रसङ्ग में पह कहना कि रविवाद्धनिषेध के अनुरोध से श्रावविधायकवाषण में कोच के लिये अमावास्या पशया का त्याग करने को आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि शत्रिभिन्म अमावास्थावरूपसे श्राउको निमिसता कामत: बोधाम हो कर अत: बोध्य होतीसोप्रकारता निषेध में भी रासाकी विधि के अनुरोध से संकोचकरने के लिये वह मोशषप्राथत्याग की सावश्यकता नहीं है क्योंकि यहां भी त्वङ्गभिन्नहिंसास्वरूप से निषेध्यता का बोध शस्त: म मान कर अत: मामा जा सकता "महकहना ठीक नहीं हो सकता क्योंकि नियमके समान कस्बा सा में भी सामामनिवेधके कारण बलवनिष्टकमकस्वकाबोध अध: असिद्ध है। यदि जाय कि येनयाग में बलवनिष्टाजनकरबका अवय न होने में शास्त्रका तात्पर्ष है किन्तु करवा हिसा में उस का बयान होने में शास्त्र का जापय नहीं हैसी इस कल्पना गौरवका आधार कल्पक हिंसाप्रेम को छोश कर दूसरा कुछ नहीं हो सकता।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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