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________________ स्या का टीका-हिन्दी विवेचन ] [५ सेः पाप्मभिहिंसालक्षणं स्वमतेनाऽपि राष्ट्र घुटम् , स्वजन्याऽदृष्टाजन्यत्वस्य मरणवियोषणस्येइसंभवान् , कार्यमानस्याऽएजन्यवाद । सामानाधिकरण्पनाऽष्टजन्यत्वनिवेशे च श्येनातिध्याप्तेः । एतेन 'अदृष्टव्यापारसंबन्धेन स्वाजन्यत्वं तत् ' इत्यपि निरस्तम्, प्रतियागप्रतिपश्येनानिव्याप्तेश्च । न च तत्र मरणोपधायकत्वलक्षणे मरणानुकूलन्यमेव न, इति नातिप्यामिति पापम्, खगघातेनाऽपि यत्र देषात् मरणं तथाऽव्याप्ल्यापचे । न प समापि पूर्णप्रायश्चित्ताऽभावाद न हिंसेति यन् , गधेवायसरापसारा । ऐसे विद्वानों के सम्बन्ध में व्याख्याकार का कहना है कि इन विद्वानों का हिसाप्रेम प्रपूर्व है। जिस के कारण ये विधान शत्रु का प्राण हरण करनेवाले पेन कर्मा को मी फेवल इसलिये शिष्ट मानने को तैयार है कि वह शत्रु का वध करने के लिये उस पर पचप्रहार नहीं करता या उसके गले में छा नहीं भोंकता। ['अष्टाद्वारक' विशेषणानुपपसि] उनके हिसाप्रेम का ही यह भी प्रभाव है कि येनयाग में सामान्यहिसामिषेध वचम को प्रप्रवृत्ति बताते हुये यह नो भूल जाते हैं कि ऐसा मानने पर 'अनर्ष के प्रपोजक में मी निषेविधि करे प्रसि होती है उनकी इस प्रतिक्षा का बाप होता है। सच बात तो यह है कि इन पापियों ने हिता का जो लाभरण बताया है वह उनके मत से भी समोजीन नहीं हो पाता क्यों कि पहयाद्वारकरण विशेषण से लक्षरा का यह स्वरूप निष्पन्न होता है कि 'जो व्यापार स्वजन्यरष्ट से मजन्य मरण का प्रयोचक हो एवं मरगोइंश्यक हो वह व्यापार हिसा है किन्तु यह लक्षण असम्भव बोब से ग्रस्त हो जाता है, क्योंकि कार्यमात्र अटकट से जन्य होता है, अतः मरण भी प्रथाय ही अरष्टजन्य होगा, मोर वह जिस प्रष्ट से जन्य होगा वह परष्ट उस व्यापार से भी अन्य होगा जिस व्यापार में प्रस्तुत हिसा लक्षण का समरवय प्रमोष्ट है, क्योंकि मरणप्रयोजकव्यापार सामान्य रूप से मरणजनमा प्रासामाग्य का जनक होता है। यदि इस दोष के वारणार्थ मरण में समानाधिकरणदष्टाजन्यस्य का निवेश किया जायगा तो इस दोष का परिहार तो हो जायगा क्योंकि हिसासे होने वाला मरण मरनेवाले के पदण्ट से होता है और वह मष्ट हिंसा का समामाधिकरण नहीं होता किन्तु ऐसा करने पर येन में हिंसालक्षण की प्रतिम्याप्ति होगी क्योंकि श्येन से होनेवाला मरण मी येनकता के प्ररण्ट से उत्पन्न होने के कारण समानाधिकरण प्रष्ट से प्रजन्य होता है। [स्व (श्येन जमकमरणेनछाविशेष्यत्व संबध भी अनुपपन्न] उक्त असम्भव का पारण करने के लिये भरष्टाधारकाव का प्रर्ष यदि 'परष्टारमकण्यापार रूप सम्बन्ध से स्वाऽबन्य' किया जाय तो इस प्रर्थ से असम्भव का धारण तो हो जायगा क्योंकि हिसाजन्य मरण के प्रति हिसा साक्षात कारण होती है, 'परष्टारमकस्यापाररूप सम्बम्भ से कारण नहीं होती और वह मरण मरने वाले प्राणों के जिस मरपट से होता है यह हिसा का पापार नहीं होता, किन्तु यह प्रर्थ मी तदोष बोमे से त्याज्य क्योंकि यस अर्थ स्वीकार कर परमी श्येत्र में हसालक्षण की प्रतिण्याप्ति का परिहार नहीं हो सकता क्योंकि श्येन मी मरष्टात्मकायापार रूप सम्बन्ध से शत्रुमरण का जनक नहीं होता अपितु स्वजनकमरणप्रकारकाच्छाविशेष्यस्थ सम्बाध से
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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