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________________ ६.1 [ शाय वा समुच्चय-०२-शो०१८ जनक होता है। कहने का प्राशय यह है कि स्पेन से उत्पन्न होने वाला प्रष्ट श्येनकर्ता में होता है प्रसः पप के साथ उसका सम्बन्ध न हो सकने से वश शमरण में श्येन का व्यापार नहीं बन सकता. प्रषित गयेनका जिस हच्छा से श्येनयाग करता है वह नाहीशन के साथ स्पेन का सम्बन्ध स्थापित करती है । जैसे श्मेन माग का अनक इच्छा इस प्रकार होती है कि'मेरे द्वारा अनुष्ठित होने वाले येन से शम्र का मरण हो' 1 इस इलया के द्वारा मात्र के साथ येन का बिजनक मरण प्रकारक इण्या विशेष्यत्व सम्बन्ध स्थापित है। जैसे, स्व कान र धेन, उस की मनक मरण प्रकारक इसाया है उक्त रुष्टा, चस की विशेष्यता मात्र में है, प्रातः स्मेनजन्य शत्रुमरण मरण्यापारात्मक सम्बन्ध से स्पेनाजन्य है। प्रत एवं मरण में प्राष्टबपापारात्मक सम्बन्ध से स्वाजन्यस्वरुप प्रष्टावारकस्व का निवेश करने पर भी प्रधेन में हिसासक्षरा की अतिण्याप्ति अनिवार्य है। यदि यह कहा माय कि-"श्येत को उक्त प्रयाविशेष्यत्व सम्बन्ध से समरण का कारण मानने पर पङ्गवैकल्य से ज्येमणग के अपूर्ण रह जाने पर मी उक्स इच्छाविशेष्यत्व सम्बन्ध के अक्षुण्ण रहने के कारण शत्रुमरण की मापस होगी १४ उसे प्राष्टात्मक व्यापाररूप सम्बन्ध से ही कारण मानना होगा, येनकर्ता में उत्पन्न होनेवाले महान का सत्र के साथ साक्षात् सम्बाध न होने पर मो स्वाबय संयुक्त संयोगरूप परम्परा सम्बन्ध बन सकता है। जैसे,-स्व का प्रर्य है पनजन्य प्रष्ट, उस का माश्रय है श्येनका, उस से संयुक्त होता है मूमध्य, मौर उस का संयोग होता है भानु के साथ। स्पेनकर्ता मारमा और शत्रु मारमा दोनों के व्यापक होने से इस सम्बाघ के होने में कोई बाया नहीं हो सकती। प्राग शरीरसंयोगतरूप मरण भी स्वप्रयोज्यमोगामाधवस्व सम्बन्ध से शत्रु-मारमा में रहता है, प्रतः इस सम्बन्ध से शत्रु श्रात्मा में होने वाले मरण के प्रति स्वजन्या स्टाभयसंयुक्तसंयोग सम्बन्ध से श्येन को कारण मानमा पुषितसंगसही है । पर्वत का यह सम्धस्थ मध्यरात्रु से भिन्न व्यक्तियों में भी रहता है, किन्तु शयेन से उन ध्यक्तियों का पय नहीं होता, अतः शपेन को केवल इस एक सम्बन्ध से ही कारण मानना ठीक नहीं है किन्तु उवात मष्यादित सम्बन्ध तषा स्वस्मरणप्रकारकछा-वियोध्यस्व सम्बन्धन वो सम्बन्धों से कारण मानना आवश्यक है। वध्य यात्रुओं से मिन्न व्यक्तियों में व्येन का पुतळा घटित सम्बन्ध न होने से उनके मरण की तमा अशकरूप से ध्येन को अपुतावशा में अहाटरितसम्बन्ध न होने से उस बया में शत्रपरणको आपसि मही हो सकती । तो इस प्रकार श्येतर मरण में अहष्टारमकम्यामाररूप सम्घ से श्येमवयस्प ही रहने के कारण स्येम में अतिव्याप्ति न हो सकने से हिसा का उक्त समय निर्घोष हो सकता है। -तो ___ यह बहना मी लक्षण को निर्दोष नहीं बना सकता, क्योंकि विरोषो पाग के कारण श्येनयाग से अभीप्सित अवध की अनुत्पत्तिकक्षा में श्येनमाग में अतिम्याप्ति का कारण नहीं हो सकता क्योंकि बह श्येन भी अष्टाप व्यापारात्मक सम्बन्ध से स्व से ममप मरण का प्रयोजक मरणोद्देश्यक ज्यापार है। इस बोष का परिहार करने के लिये यवि-मरणप्रयोजकत्व के स्थान में मरणोपवायकरव का निमेगा किया जाय तो यह भी ठीक नहीं हो सकता, कयोंकि जहाँ किसी प्राणी पर खनाप्रहार करने पर भी प्रारणो को मत्यु उस प्रहार से न होकर पाप में देवा हो जाती है बही उस बगप्रहारकप हिमा में मरणोपधायकस्य म होमे से हिसाहक्षण को अध्याप्ति होगी। 'ऐसे व्यापार के लिये पूर्ण प्रायश्चित का विधान न होमे से ऐसे व्यापार को हिसा हो नहीं माना जा
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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