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________________ हिन्मीविवेचविशीकृत स्यावादकल्पलताटीकाविभूषित शास्त्रवार्तासमुच्चय द्वितीयः स्तबकः (ही)-प्रतीपाय दीपाय सतामान्सरचक्षुप । नमः स्याद्वादिनन्त्राय स्वतन्त्राय शिवस्त्रये ॥२॥ वातान्तरमाहमूलम्-हिंसादिभ्योऽशुभ कर्म तदन्येभ्यश्च तच्छुभम् । जायते नियमो मानात कुतोऽयमिति चापरे ॥ १ ॥ हिंसाविधः अत्रिरस्यादिहेतुभ्यः, अशुभ-पापं कर्म भवति । नवन्येभ्यध-विर. त्यादिहेतुभ्यः, शुभं पुण्यं, तत्-कर्म भवति । अयं नियमः प्रतिनियतहेतुहेतुमदायनिश्चया, कता-कस्मात, मानान-प्रमाणान् । इति बापरे सन्दिहाना वादिनः प्राहुः । अभ्युत्पन्नाना चेपमाशङ्का धर्माधर्मपदवाच्यत्वावरि मधर्मिनाका, अन्यथा धर्मियाइकमानेनोक्तनियमोपरक्तपोरेव धर्मावर्मयोः सिद्धावीशशानुदयादिति ध्येयम् ॥१।। [टीका के मङ्गलालोक का भावार्थ ] पाठवियों का शास्त्र प्रस्तुतस्य को प्रशित करने वाला ऐसा प्रवीप है जिसके प्रभाव को मिल करने वाला कोई नहीं है। यह सत्पुरुषों की अन्तविजिससे बम से कम तस्वदेने का सकते हैं, वह स्वतन्त्र सूर्य है जिसका उपय किसी अन्य कारण को अपेक्षा नहीं रखता और जिससे समस्त पदार्थ बेरोकटोक प्रकाशित होते रहते हैं। ऐसा महान शास्त्र सबका बसनीय है। [ पुण्य-पाप के नियम में प्राशङ्का ] यहाँ प्रणाम कारिका में अदृष्ट के सम्बन्ध में एक दूसरी बात कही गयी है, वह यह किएछ संपायमस्त वारियों को यह वाला है कि-'अविरति प्राणि हेतुओं से पाप होता है मौर विरति आदि हेतुओं से पुण्य होता है-स प्रकार के निपत हेतुहेतुमाप में कोई प्रमाण नहीं है, अतः कभी अपिरति मावि से पुण्य का और विरति आदि से पाप का भी जन्म होना चाहिये।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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