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[ शा. पा. समुरुचरा न. ३-इसी०१ इति व्यर्थमस्य वेदादिप्रणयनम । 'कर्मवदामी देशामविरुद्ध नव प्रा. या नानुपपतिरिति चत् । तर्हि परप्रवृत्तये वाक्यमुपदिशन स्वेटमाधनताज्ञानादिकपि कथमतिपतेत १ कथं या पेशवाहिन्ने विलक्षणयत्नत्वेन हेतुत्वान् तदवच्छिन्नम्य विजानीयमन:संयोगादिजन्यत्यात ताशप्रयत्नं बिना अशादिशरीर चेष्टा ? विलवणचधापी विलक्षणप्रयत्नम्य हेतुत्वान् अत्रेश्वरीययत्न एव हेतुरिति चेन् ? नहि नम्य सर्वत्राऽविशिष्टत्वात सर्वधापीश्वरमेष्टा पति: 1 "विलवणचेशवच्छिन्नविशेग्यतया तत्प्रयत्नस्य हेतुन्वाद् नानिप्रसङ्ग' इति चेत् ? तहिं पोटावलक्षण्यसिद्धी नचाहेतुत्वम् , नथाहेसुत्थे च नलक्षण्यमिनि परम्पराश्रयः ।।
इस प्रश्न के उत्सर में यदि यह कहा जाय कि-जैसे प्रार्हत मत में कम ही सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का मूल कारण होता है किन्तु वह सीये उन प्रवृत्तियों का जनक न होकर जिस रप्ट-इष्ट कारण से प्रवृत्तियों का होना लोक में देखा जाता है उस के द्वारा ही उसे उन प्रवत्तियों का जनक माना जाता है। इसी लिये कर्म और प्रकृसियों के बीच दृष्ट प्रष्ट तत्तत कारणों को भी अपेक्षा होती है। उसी प्रकार ईवर यद्यपि जगत को सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का कारण है किन्तु वह भी लोक में जिप्त प्रवासियों का जिस दृष्ट-इष्ट कारण से उदय झोना देखा जाता है उनके द्वारा ही उन प्रवृत्ति का कारण होता है। प्रतः बेवादि के द्वारा लोक प्रवृत्ति को सम्पादनार्थ उसे वेवादि की रसना करनी पाती है। प्रस: बेदावि की रचना को व्यर्थ नहीं कहा जा सकता'-ना यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि वह चूमरों की प्रवृत्ति के लिये बाक्य का उपदेश वसलिये करता है कि वाक्य हारा हो पर का प्रवर्तन लोक में प्रष्ट तब तो उसे अपने इण्टसायनताशानावि की भी अपेक्षा करनी चाहिये क्योंकि यह मो लोक में वेत्रा जाता है कि मनुष्य जिस कर्म को दूसरे द्वारा कराने में मपना इष्ट समझता है उसी फर्म में दूपरे को प्रवृत्त करता हैं । अतः ईश्वर को भी इमोप्रकार दूसरों का प्रयतम करमा चाहिये। किन्तु ऐसा मानने पर ईश्वर संसारी मनुष्यों से श्रेष्ठ न हो सकेगा। कोहि संसारो मनुष्य के समान वह भी अपूर्ण होगा और जिस वस्तु की उसे कमो होगी उसे पाने की वह सुरछा करेगा और उस की प्राप्ति जिस मनुष्य को किया से संवित होगो उस मनुष्य को उस क्रिया में प्रवृत्त करेगा।
[ ब्रह्मावि देयता के शरीर में चेष्टा कसे ? ] इस संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि-बाह्मावि देवतामों के शारों में पेष्टा कले उत्पन्न हो सकती हैं और चेष्टा उत्पन्न न होने पर उनके द्वारा राष्टि का निर्माण-रक्षण और संहार आदि कार्य किस प्रकार हो सकेगा? धमा आदि शरीरों में चेष्टा नहो सकने का कारण यह है कि चेष्टा के प्रति विलक्षण प्रयत्न कारण होता है मौर विलक्षण प्रयत्म के प्रति विलक्षण माममन संयोगादि कारण होता है, ब्रह्मा प्रावि में विलक्षण मात्ममन:संयोग न होने से विलक्षणप्रयत्न नहीं हो सकता है । और विलक्षण प्रयत्न के प्रभाव में ब्रह्मा आदि के पारीर में चेष्टा नहीं हो सकती है। यदि यह कहें कि -"विलक्षणप्रयत्न विलक्षणचेष्टा का कारण होता है प्रत: विलक्षण प्रयत्न से होनेवाली विलक्षणवेष्टा ब्रह्मा मावि के सरीर में मले म हो किन्तु ईश्वर प्रयत्न से चेष्टा होने में कोई बाधा नहीं हो सकती'