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प्यार का टीका-बिन्दीविवेचना ]
किच, स्वाधिष्ठातरि मोगाजनकशरीरसंपादनमपि तस्यैश्चर्यमात्रमेष, इति दृष्टचिंगेनव जगत्प्रवृत्तिगयाता । एतेनेसन प्रतिक्षितम्
तो यह ठीक नहीं है पयोंकि विवर का प्रयत्न स्वाश्रयसंयोग सम्बम्प ले जैसे ब्रह्मा प्रावि शरीर में रहेगा उसी प्रकार अन्य समो शरीरों प्रौर मूर्त वृक्षों में भी रहेगा, प्रतः ईश्वरप्रयम को उक्त सम्बन्ध से चेष्टा का कारण मानमे पर केवल समावि शरीरों में ही उस से भेष्टा की उत्पत्ति न होगी पिy अन्य सभी कारों में मी चेष्टा की आपत्ति होगी। .
[ब्रह्माविस रीरचेष्टा की उपपत्ति का व्यर्थ प्रयास ] इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-"जैसे जीष के विलक्षणप्रयत्न से विलक्षणचेष्टा की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार ईश्वर प्रसस्न से मी विलक्षणचेष्टा को उत्पत्ति होती है और यह विलक्ष या चेष्टा जीव के प्रपस्त से होने वाली विलक्षयनेष्टा से विलक्षण होती है और इस चेष्टा के प्रति ईश्वर प्रगत स्वायसंयोग सम्बन्ध से कारण न होकर विलक्षण वेण्टावावच्छिन्न विवोत्यता सम्बन्ध से कारण होता है। यह विशेष्यता प्रामा प्रादि शरीरों में होने वाली चेष्टानों में ही रहती है अत एवं ईश्वर प्रयत्म से प्रप्सी बेटा का जन्म होताहै अन्य चेष्टानों का जाम नहीं होता है क्योंकि उवत शिल्पता सम्बन्ध से ईश्वरप्रयरल को कारण मानने पर कार्यतावशवकसम्बन्ध तावाश्म्य होता है और बझाव शरीर में उत्पाहोनेपाली विलक्षण पेष्टा का तादात्म्य उसी चेष्टा में होता अन्य पेष्टानों में नहीं होता है। वह बेटा ब्रह्मावि के पारीर में ही समवेत होती है सन्य शरीरों में नहीं क्योंकि सपकाय सम्बन्ध से उस चेष्टा के प्रति प्रावि शरीर भोगानायतनशरीरत्व रूप से कारण होता है। ब्रह्मादि का शरीर किसी मोक्ता का शरीर नहीं होता किन्त प्राणियों के प्रष्ट से उत्पन्न होने वाला ऐसा शरीर होता है जिस से किसी का मोग नहीं होता है किन्तु ईश्वर के प्रयत्न से छोटावान् होकर ईश्वर के कार्यों में सहायक होता है, प्राणियों के प्रष्ट से होमेवाले अन्य सभी शरीर प्राणियों के भोग का मायतन होते हैं प्रत एव उन में मोगानायतनहारीरत्व नहीं रहता है, इसीलिए ब्रह्मादि के शरीर में ईवर प्रयत्न से उत्पथ होनेवाली चेष्टा अन्य शरीरों में समवेत नहीं होती है ।
तो यह कथन ठीक नहीं है पोंकि जब यह सिद्ध हो माय कि ब्रह्मादि के शरीर में होनेवाली नेष्टा प्रन्य चेन्टानों से विलक्षण होती है सभी तावात्म्यसम्बन्ध से विलक्षण पेष्टा के प्रति विलक्षणचेष्टावाणिछन्न वियोग्यता सम्बन्ध से ईश्वर प्रयत्न में कारणता सिद्ध हो सकती है और जब उपत कारसता सित हो जाम तभी ईश्वर प्रयत्म से ब्रह्मादि शरीर में उत्पन्न होनेवाली पेष्टा में लक्ष सित हो सकता है। अतः प्रयोन्याश्रय घोष होने के कारण उक्त कार्य कारण माप की कल्पना नहीं हो सकती।
(वरप्रवृत्ति में इष्टविरोध को आपत्तियाँ) सष्टि माग्न में उत्पन्न कतिपय शरीरों में ईश्वरावेगा वारा सतत् सम्प्रदायों का प्रपतन मामले में दृष्टविरोध का उरुसेख प्रभी किया जा चुका है। वह प्रापत्ति इस बात से और स्पष्ट हो जाती है कि ईश्वर ऐसे भी शरीर का निर्माण करता है जो अपने पधिष्ठाता में-अपने को सचेष्ट बनानेवाले पुरुष में भोग ना उत्पन्न करता है। ऐसे शरीर की रचना उस के एकमात्र ऐश्वयं का हो सूचन करतो हैपयोंकि ऐसा कामं जो लोकरष्ट कार्यों से सपा विचित्र हो निरंकुश ईयर के बिना