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________________ स्मा० क. टीधा मौर बिभी विपना ] अपि च, यथाकथञ्चिद् भतावेशन्यायेन तकनीरपरिग्रह जगदप्यावेशेनैव प्रवर्तयेत् [ योगी जनों द्वारा कायम्यूह की उपपत्ति ] प्रब इस पर यह प्रान हो सकता है कि 'यवि तसत् पुरुषोम प्रयत्न के प्रति तत्तत् पुरुषीय शरीर कारण है तब जब कोई योगी विभिन्न शरीरों ले मोक्तव्य कर्मों को एक सापही मोग श समारत कर बेमे के लिये विभिन्न शरीरों की रचना करता है तो उस योगो में विभिन्न शरीरापल्लेवेन प्रयत्न कैसे उत्पन्न होगायोंकि उस योगी को प्रारक कर्म से जो गारीर प्राप्त रहता है वही उसका शरीर होता है। अत एव उसो पारीर केबारा नस से प्रयत्न होना उचित । - किन्तु मह प्रश्न उचित नहीं है पाकि जैसे उस का मातापिताज शरीर उस परष्ट से उसे उपलबध होता है उसी प्रकार संपूर्ण को का एक साथ भोग करने के लिये वह स्वयं जिन विभिन्न शरीरों की रचना करता है वे शरीर भी उसी के योग प्रदान से उसे उपलब्ध होते हैं। मतः मातापितज शरीर के साथ वे शरीर भी उसी के शारीर है अतः सम्पुरुषीयप्रयत के प्रति तत्पुरुषीयारीर-तत्पुरुषीम प्रष्टकृष्ट शरीर को कारण मानने पर स्वनिर्मित कायथ्यूह द्वारा योगी में प्रकृति की अनुपसि नहीं हो सकती। मिष्कर्ष यह है कि एक पुरुष के शरीर से अन्य पुरुष में प्रवृत्ति की उत्पति के निवारणार्थ सत्तत पुरुकीय प्रयत्न में तप्तत युकधीय शरीर को कारण मानना मावश्यक है। और जो सरीर जिस पुरुष के प्रष्ट से उत्पन्न होता हैषही उस पुरुष का शरीर होता है। प्राधिका शरीर भूतात्मा के प्रष्ट से उत्पन्न नहीं होता। मत एष बह्न सूतात्मा का शरीर नहीं कहा जा सकता और सृष्टि के पारम्भ में जो प्रयोज्य-प्रयोजक प्रादि शरीर उत्पन्न होता है वह ईश्वर के प्रहट से उत्पन्न महों होता मत वह ईश्वर का शरीर नहीं कहा जा सकता । अतः सत्ता शरीरात पावेश को सत्तत् जारीरावर वेन प्रयत्नवस्वरूप मानने पर न्याय मत में मृतावेश और ईश्वराधेश की उपाति नही हो सकती । किन्तु श्राहंत मत में उपतरूप से चूतावेगा की उपपनि हो सकती है और ईश्वरावेश की उपपत्ति की चिन्ता पाहतों को होशी नहीं सकती क्योंकि उन्हें ईश्वरवेश मानने की प्रावस्यकता नहीं है। (प्रावेश से प्रवृत्ति, वेदाविरचना को व्यर्थता) सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर द्वारा सम्प्रवाब प्रवर्तन को जो उपपत्ति बताई गई है उस सम्बन्ध में यह भी विचारणीय हो जाता है कि मधि यह मान भी लिया जाय कि भूताखेश के समान दृष्टि के प्रारम्म में कुछ शरीरों में वि. रावा होता है और उस मावेश के कारण उन शरीरों द्वारा ईश्वर तत्तत्सम्प्रदाय का प्रयतन करता तो इस प्रश्न का क्या समाधान होगा कि-'चा कतिपय शरीरों में आवेश द्वारा से सम्प्रदाय का प्रयसंम करता है से प्राबेश छारा ही समुचे अगत् का भी प्रबर्तन क्यों नहीं कर बेता? अर्थात यह स्यों न मान लिया जाय कि जगत में जिस किसी में ओ क्रिया होती है वह उस में ईश्वर का मावेश होने के कारण ही होती है, मनुष्य के विभिन्न शरीरों द्वारा ओ अवविहित कर्मों का मनुष्ठान होता है बात उन शरीरों में ईश्वर के प्रावेश से ही होता है। इस बात का सहकेत गीता-माधि के कुछ बचों से भी मिलता है। जैसे 'ईश्वरः सर्वभूतानाम् हदेशे मर्छन ? तिष्ठति। भ्रामयम् लर्वभूतानि पन्न.. ढाणि मायया ॥ एवं-जानामि धर्म म प मे प्रतिमानाम्यभम न च मे निवृत्तिःकेनापि देवेन हवि स्यिसेन यथा निमुक्तोऽस्मि तथा करोमि' । इस प्रकार ईश्वरावस से हो जगत को सम्पूर्ण प्रवृत्तियां निष्पन्न हो सकती है। प्रतःश्वर द्वारा वेवशास्त्रादि की रचना मानना मिरक है।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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