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________________ ७२ ] [ शा. बा. समुचय स्त०-१ श्लोक ह , तया सद्भावस्य हेतोपादकस्य सुधान् तत्तच्छरीरत्वेन तत्तत्मवृश्यादिहेतुत्वं गोरबा काय थलेऽपि योगाशेप गृहीतत्संबन्धेन तदात्मवस्त्रस्य मशरीरानुगतत्वात । शरीरावरखेवेन चैत्रप्रवृति की उत्पत्ति के निवारणार्थ भवदेवकतासम्बन्ध से मंत्र प्रयत्न के प्रति याम्पसम्वन्ध से यंत्र शरीर को कारण मानना पडता है। इसलिये चंद्रादि का शरीर चैत्रावि को ही प्रवृत्ति का कारण हो सकता है भूतात्मा को प्रवृति का कारण नहीं हो सकता । प्रसः न्याय मत में दि के शरीर में भूतावेश की अनुपपति हो सकती है। [ नयायिक मान्य कार्य कारणभाव में गौरव ] यदि यह कहा जाय कि ' प्रचच्देवकला सम्बन्ध से चैत्र-प्रयत्न के प्रति वाशेर तावात्म्य सम्बन्ध से कारण है यह कार्य कारणभाव नैयायिक को भी मान्य नहीं है। क्योंकि इसके मानने पर भी यह आपत्ति हो सकती है कि हस्त में गति उपन करनेवाले प्रयत्न की अवच्छेदकता सम्बन्ध से चरण में भी उत्पति होनी चाहिये। क्योंकि वरण में प्रयच्छेदकतासम्बन्ध से उस प्रयत्न का प्रभाव है और अबकता सम्बन्धन सत्प्रयत्न का प्रभाव तत्प्रयत्न का कारण होता है प्रत इस आपसि के बार गार्थं जो ओप्रवृत्ति जिस जिस शरीर या जिस जिस शशेरावयव द्वारा उत्पन्न होती है उस उस प्रवृत्ति के प्रति तत्तद् शरीर या तत्तद् शरीरावयव कारण होता है । भोर इस कार्यकारणभाव को मान लेने पर मैशरीरावच्छेदेन प्रवृति की आपत्ति का भी वारसा हो जाता है। धतः प्रवच्छेदकतासम्बन्ध से क्षेत्र प्रयत्न के प्रति प्रवासम्बन्ध से क्षेत्रशरीर कारण है यह कार्यकारणभाव अनावश्यक हो जाता है। इसीलिये यंत्रशरीरावच्छेदेन नूतात्मा में प्रवृत्तिरूप नलावेश और सृष्टि के प्रारम्भ में प्रयोज्य-प्रयोजक प्रादि शरीरावच्छेदेन प्रयत्तशालितारूप ईश्वरराधेश की अनुत्पत्ति नहीं हो सकतीतो यह ठीक नहीं है क्योंकि हस्त में सिजनक प्रयत्न की चरण में उत्पत्ति को आपत्ति का धारण करने के लिये जिस कार्यकारणभाव की कल्पना की गई है उस में प्रवृत्ति एवं शरीर तथा शरीरावयव के भेव से महान गौरव है। अतः उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । चरण में हस्तक्रियाजनक प्रयत्न को उत्पत्ति को आपत्ति का बाररण करने के लिये यह कार्यकारणभाव मानना उचित है कि यछेदकतासम्बन्ध से अयन के प्रति गतिप्रकारकच्छा बिशेष्यलाय से कारण है । हस्त में गति का जनक प्रयत्न 'हलचल' इस इच्छा से उत्पन्न होता है। यह इच्छा विशेष्यता सम्बन्ध से हस्त में रहती है। अत एव इस इच्छा से उत्पन्न होनेवाला प्रयत्न अवश्यकता सम्बर से हस्त में ही उत्पन्न हो सकता है न कि चरण में अथवा यह कहा जा सकता है कि कोई भी प्रश्न श्रकतासम्बन्धेन किसी भी शरीरावयव में नहीं उत्पन्न हो सकता किन्तु प्रवच्देवकला सम्बन्धेन शरीर में ही उत्पन्न होता है। और उस प्रयत्न से शुरू चरणावि में जो सवा प्रवृत्ति नहीं होती है ferg व्यवस्थित रूप में कभी हस्त में कभी चरण में होती है उसका नियामक प्रदस्त की उत्पल करनेवाली 'हस्सलतु, घरणश्चलतु' इत्यादि इच्छा है। इसका यह है कि सम्वन्य सम्बर से चलना विरूप चेष्टा के प्रति प्रयत्न 'स्वजनक वलनादि प्रकारक इच्छा विवोध्यत्व सम्बन्ध' से कारण है। प्रत: जब 'पालितु' इस इच्छा से शरीशवदेवेन प्रयत्न उत्पन्न होगा तब वह प्रयत्न उक्त सम्बन्ध से पाणि में रहने के कारण पाशि में चलन थिया को उत्पन करेगा। और जब 'रश्वतु इस इच्छा से वारा प्रयान उत्पन्न होगा तब वह प्रथम उपनसम्बन्ध से रण में रहने के कारण चरण में चलन क्रिया को उत्पन्न करेगा।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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