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[आर. वा. समुच्चय स्त. २-रो० ४०-४१
किंतुकोऽयम् ? इति पर्यनुयुज्यतेमूलम्-हिंसान कपसाध्या था तविपर्ययोऽपि वा ।
___ अन्यहेतुरहेतर्वा सय कर्मक्षयो ननु ? ॥४०||
तथाहि 'ननु' इत्याक्षेपे, वै=निश्चितम् । स फर्मक्षयो हिसाबुत्कर्षमाध्यो वा स्गात हिंसोत्तरदुःखापनगनोत्कर्षसाध्यो वा स्यात् । नमिपर्ययसाध्यो पा=अहिंसाधुक्कसाध्यो वा म्यान , अन्याहतुः एतदुभयानिरिक्सतुवा स्यात् , अहेतुर्वा स्थात् , इति चत्वारः पक्षाः ॥३०॥
मूलम्-हिंसाद्या कलाध्यत्वे Rदमाघे न तस्पितिः ।
कर्मक्षयाऽस्थिती चस्यान्मुक्तानां मुक्तताक्षतिः ॥३१॥ आधे आइ-हिंसाधुन्कर्पसाध्यत्वे, सवभाव-हिंसाधुत्कर्षामावे, न तत्स्थितिः न कर्मभयस्थिनिः, फर्मक्षयास्थितौ च मुक्ताना मुक्ततामतिः म्यात् ॥४॥
(कर्मक्षय के सम्भवित हैतु चतुष्टय) प्रस्तुत सालीसवी कारिका में 'न'माद में कर्मक्षय की सम्भाव्यता पर आक्षेप करते हुये उसके हेतुओं के विषय में जिज्ञामा यमत को गह है। कारिका का अपं इस प्रकार है
कर्मक्षय के सहेतुक होने की सम्भावमा के निश्चित रूप से पार हो पक्ष हो सकते है. जैसे
१.कर्मभय हिंसा आदि के जरक अर्थात हिसा के भनातर होनेवासे बुखाराहित्य के उत्कर्ष से सम्पावित हो सकता है क्या ?
२ हिंसा आदि के विरोधी हिंसा धाविक जकर्ष से सम्पावित हो सकता है क्या? ३ उक्त दोनों हेतुओं से अतिरिक्त किसी समय हेतु से सम्पादित हो सकता है क्या? । अषका हेतु के विमा हो सभ हो सकता है ममा ? ||५|| ४१ / कारिका से प्रथमपक्ष को भयुक्सना बतायी गयी हैं जो इस प्रकार हैं
हिसा आदि के अस्कर्ष से कर्मक्षय की सम्भावना नहीं की जा सकती, क्योंकि हिंसा भाविका उत्कर्ष कदापि सम्भव नहीं हैं. अतः उस से कर्मक्षय नहीं उपपन्न हो सकता, और कर्मक्षय न हो सकने पर पुन पुरुषों की वास्त्रों में कथित मुक्तता का समर्थन नहीं हो सकता।
आशय यह है कि हिंसा के उत्कई की कल्पना को प्रकार से की जा सकती है । सम्पूर्ण जीवों को हिसा मा हिसाहत जोय की दुःखों से मुक्ति । किन्तु यह दोनों हो जाते मसम्भव है. गोंकि कोई भी म्यति सम्पूर्ण जीमी की हिसा नहीं कर सकता, और न कों से बंधा जीव हिंसाहत होकर वु:खों से मुमत भी हो सकता है क्योंकि समबदा उस का पुनर्जन्म और उस जन्म में दुखों का आघात बनिया हैं ।