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________________ स्या०० टीका मोर हिन्दीविवेचन ] द्वितीय आइ मलम्-तविपर्ययसाध्यावे परसिम्हान्तसस्थितिः । ___ कर्मक्षयः समां पस्मावहिंसाविप्रसाधनः ॥४२॥ तद्विपर्ययसाध्यावे =अईिमान त्कर्षमाध्यन्वेपरसिद्धान्तसंस्थितिः अन्यायपगमप्रमशः, पनः सतांसाधूनाम् , कर्मयोऽहिमादिप्रसाधन इष्टः ।।४।। वतीय श्राई तवन्यातुसाध्याचे नास्वरूपमसंस्थितम् । अहेतुन्वे सदा भावाऽभाषा वा स्यात् सदैव हि ।।४।। तदन्यसाध्य =उक्तोभयातिरिक्तमाध्यत्वे, तस्वरूप तदन्य हेतुस्यरूपम् , असंस्थितम अनिर्वचनवाधिन वाधकम् । चतुर्थ आइ-अतुम्वे कर्मक्षयम्य, गदा भावः म्याद , उत्पत्तिशीलन्यात , हिनिश्चितम् , गंदेवाभावी वा स्यानु अनुत्तिशीलन्यात 1॥४३|| सदन विनीय विकल्प एवं न्याय्य इति दर्शयतिमलमू-मुषितः कर्मक्षयाधिष्टा जानयोगफलं सब । अहिंसादि च ततुरिति न्यायः समां मनः ॥४॥ कर्मक्षय अहिंसावि के उस्कषं से साथ्य है ?] १२ कारिका में दूसरे पक्ष कोटि बतायी गयी है, जो इस प्रकार हैं कमंत्रय को हिमादि के उत्कर्ष के विपरीत महिला आदि के उत्कर्ष से साध्य मानने पर मध्य पक्ष-जो पक्ष अपने को इष्ट नहीं है-को स्वीकार करने की प्राप्ति होगी क्योंकि हिसा आदि से कर्मों का क्षय होता है यह साधुपुरों का धर्म एवं अध्यात्म में निष्ठा रखने वाले विधेको पुच्चों का मभिमत पक्ष हैरा ४. वोहारिका के पूर्वार्थ से तीसरे पक्ष को सदोषता बतायी गयी है जो इस प्रकार है हिसा वि निश्च कर्म और हिंसा आदि स्तुत्यकर्म. इन दोनों से भिन्न हेव द्वारा कर्मक्षय की सिद्धि नहीं मानी जा सकती, क्योंकि इस प्रकार का हेतु अमहियत-अमिय है. उस का नियमन हो सको के कारण वह स्वयं बाधित है. प्रत: वह सिकातपक्ष का बाधक नहीं हो सकता। कारिका के उत्तराध से चौथे पन का दोष बताया गया है, जो इस प्रकार है मक्षय को प्रहक-हेतुनिरपेक्ष भी नहीं माना जा सकता, पयोंकि अहेतुकको श्रिताप से हो हो पति हो सकती है। एक मह कि हेतु के अभाव में भी पविग्रह उपसिशील होगा. तो सबब उस का अस्तित्व होना चाहिये, पयोकि उसके होमे में किसो की अपेक्षा नहीं है, और दूसरी यह कि यदि मा अनुत्पत्तिशोल होगा तो उस की कभी भी उरपति म होने से उसे कमी म होना चाहिये अपिल सब उस का अब हो रहना चाहिये ||४३५१
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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