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________________ [ शा. बा० समुच्चयक्त ३.श्लोक ९ ' अथ' यथा मायावी सूत्रसंचाराधिष्ठितदारुपुत्रक 'परमामय' इत्यादि नियोज्य घटाऽऽनयन' संपाद्य बालकस्य व्युत्पत्ती प्रयोजकः। तथेश्वगेऽपि प्रयोज्य प्रयोजक वृद्धीमय म्यपहारं कृत्वाऽऽयव्युत्पत्ति कारयति । न चाऽत्र चेष्टया प्रवृतिम् । तया शानम् , नमाने उपस्थितवाक्यहेतुत्वम् , तज्ज्ञानविषयपदार्थ चाऽऽवापोझापाम्य- तत्तत्पदनान हेतुत्वमनुमाय तसत्पदे तत्तदर्थेनानानुकूलत्वेन नचदर्थ संवन्धयचमनुमेयम् । एवं चाऽयं संबन्धग्रही भ्रमः झ्याउ , जनस्तानम्य भ्रमत्वात् इति वाच्यम् । तस्वेऽपि विषयाऽमाधेन प्रभावान , परम परामर्शस्य प्रमारसंभवाच्च । एचमीश्वर एव कुलालादिशगर परिगृह्य घटादिसंप्रदायप्रवर्तकः । अत पर श्रुतिः (नमः) कलालेभ्यो नमः कर्मारभ्यः' इत्यादीप्ति ।" चेत? के भप्रमोम से बालक ग्रह भनुमान करता है कि शाम्ब घट का बोधक है और उसके बाद 'घट शम्ब से हो घट का बीच होता है, पटवा से क्यों नहीं होता। ऐसा विद्यार करते हुए या अनुमान करता हैं कि घटना अयं से माना है और घटक असे नहीं है। इस निचय के अनन्सर मालक कालान्तर में स्वयं घट का बोध कराने के लिये हायं घट शब्द का ध्यवहार करने लगता है और अन्य द्वारा घट नाम का व्यवहार होने पर स्वयं घट का नाम प्राप्त करने लगता है । इस प्रकार प्रयोज्य और प्रयोजक पक्षों के द्वारा व्यवहार का प्रवर्तन होता है किन्तु यदि सृष्टि का प्रारम्भ माना जायेगा तो उस समय प्रयोज्य और प्रयोजक पूजन होने मे पास उयवहार का प्रवर्तन नहीं हो सकेगा। [मायाजालिक के समान ईश्वर को शिक्षा-पूर्वपक्ष ] यदि यह कहा जाय-क जैसे मामात्री पुरुष जब अकेला होता है उसके साथ कोई कनिष्ठ वयस्थ व्यक्ति नहीं होता और वह कोई किसी मालक को व्यवहार सिखाना चाहता है तम यह कनिष्ठमयस्य के स्थान में एक लकडो का मनुष्य बना लेता है और उसको सत से इस प्रकार बांध लेता है कि वह उस सूत्र के द्वारा गतिशील हो सके और सब वा 'घटमानय' इस शब्द का प्रयोग करके सूत्र के संचालन से उस काष्ठ निमिस पुरुष के द्वारा घटानयन का संपावन कर मालक को घट शम्द के व्यवहार की शिक्षा देता है। तो जैसे मायावी फाष्ठ से बने हुए मनुष्य को प्रयोज्य पडके स्थान में रखकर ग्यवहारको शिक्षा देता है, उसी प्रकार पर प्रयोज्य और प्रमोजकशरीरों की रचना कर प्रयोजक शरीर के द्वारा 'घटमानय' इस शब्द का प्रयोग कर मोर प्रयोज्य शरीर द्वारा घटानयन का संपावन कर सृष्टि के प्रारंभ काल के मनुष्य को व्यवहार की शिक्षा दे सकता है। इस सन्दर्भ में यह सड़का हो कि-'उक्स कम से व्यवहारविक्षा की जो पति है उस के मनुमार घेष्टा से प्रवृत्ति का और प्रवृत्ति से कसंम्पताशान का और ज्ञान के प्रति उपस्थित गाय में कारणता का और उस तान के विषयभूत तत पदार्थज्ञान के प्रति प्राचाप और जवाप प्रति क्रिया५५ के साथ तस पद का प्रयोग पोर पप्रमोग से तत्व पर में तत्तव पवार्य के सम्बाप का अनुमान किया जा सकता है। किन्तु इस स्थिति में सुष्टि के प्रारम्म में प्रयोग्य और प्रयोजक शरीर का निर्माण कर उसके शाराविरको म्यवहार का प्रवर्तक मामले पर तत्सद पदार्थ के समाप का जपतानुमान प्रम होगा।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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