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________________ न्या कर टीका-हिन्दीविवेचना ] . [६७ एनेन 'आधव्यवहागडीपरसिद्धिः, प्रतिमर्ग मन्त्रादीना बहना त्र्यवहारप्रवर्तकानों कल्पने गौम्यादकस्यैव भगवतः सिद्ध इत्पपास्नम् । मर्गादेरेवाऽसिद्धः, इदानीमिय सर्वदा पूर्वपूर्वव्यवहारेणवोत्तरोनरव्यवहारोपपत्तेः । यदि तु सर्मादिरूपेयते, तदा तदानी प्रयोज्यायोजकद्धयोरभावान कथं व्यभार ? मान लिया जाय तो जीवमात्र को अनायास हो मोक्ष मील जायगा । फिर ब्रह्मचर्यादि पालन का कष्ट उठाने की मावश्यकता नहीं पड़ेगी । फलतः मोक्ष को प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्यादि का उपयेश शास्त्रों में किया गया है वह निरर्षक हो जायगा। इस विषय का विस्तृत विचार प्रन्यान्तर में सदस्य है। [ सर्गादि की प्रसिद्धि से पाच व्यवहारादिकथन को व्यर्थता ] पित्रों में शामिहार से मप्रदर्शक रूप में भी श्वर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि "मिन्नमिन्न सष्टि में मनुनावि अनेक पुरषों को व्यवहार का प्रयतंक मानने में गौरव होगा और सभी सुष्टि में एकमात्र ईश्वर को ही प्रबर्सक मानने में लाघव होगा इस प्रकार ईश्वर की कल्पना का मापाततः प्रौबिस्य प्रतीत होने पर भी वास्तव द्रष्टि से उपतरोति से ईश्वर को कल्पना उचित नहीं हो सकती, क्योंकि सष्टि का प्रारम्म ही किसो प्रमाग से सिद्ध नहीं होता । अपितु पही कल्पना उचित प्रतीत होती है कि जैसे इस समय के व्यवहार अपने पूर्व व्यवहारों से ही सम्पन्न होते है उसी प्रकार संपूर्ण समय के ध्यवहार अपने पूर्व व्यवहारों से ही मम्पन्न होते हैं। और ऐसा मानने पर कोई प्राद्य व्यवहार सिम होने से व्यवहार के प्राध प्रवर्मक की कल्पना की संभावना ही समाप्त हो जामगी 1 [सर्ग के प्रारम्भ में व्यवहार की प्रसिद्धि ] इस संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि यदि सृष्टि का प्रारम्भ माना जायेगा तो उस समय प्रयोज्य और प्रमोजक पटके न होने से व्यवहार कसे प्रतित हो सकेगा कहने का तात्पर्य यह है कि सन्टिकाल में व्यवहार का प्रवर्तन प्रयोज्य पौर प्रयोजकममस्थ पुरुषों द्वारा होता है, जैसे-जब कोई अयस्थ व्यक्ति किसी बालक को ध्यबहार को शिक्षा देना चाहता है तब वह उस बालक को पास में विकाकर अपने किसी कनिष्ठ क्यस्य व्यक्ति को प्रादेश देता है कि 'घवाले ग्रामरे या घडाले जाम्रो। कनिष्ठ अपस्य सक्ति जिसे प्रयोज्य पर कहा जाता है, उस आवेग वाक्य को सुनकर घट को ले आता है मा ले जाता है। पात्र में हुआ बालक प्रयोयट के घट सानयन को देखकर उसके कारणरूप में प्रयोश्यपटो घसानधन में संग्यता के कान का अनुमान करता है और फिर उस वामय में उस नामको कारबता का अनुमान करता है। उसके बाव ज्येष्ठ वयस्थ व्यक्ति जिसे प्रयोजकान कहा जाता है यह मावेश देता है कि 'घट मेय. पदमानव और प्राज्य पशु घट को हठा कर पट का आनयन करता है सब बालक या अनुमान करता है कि 'घटमामयपस कास्य के भीतर ओ घटनाब है वही घर जान का जमकर कोंकि आनय शव के साथ सब घटनामा पाता प्रयोज्य बद्धको घटानया में पतंग्यता का ज्ञान हुमा पौर अब 'मामय'मन के साथ घट बाद भी चा किन्तु पट शाम्ब पा सब घटानमन में संबधता का जान नहीं भा । इस प्रकार हमरा के भावाप अर्थात काय काय के साथ उसका प्रयोग और घटना के जव्वाप अर्थात भानय शव के साथ उस
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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