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हो जायगा । प्रतः प्रव्यवहित वर्षावितपूर्वक सभी वर्षाबिन को राशिविशेषामितविपूर्वक मानना पहेगा। प्रत एष राशिविशेषावच्छिन्तरविपूर्वकत्व में अत्यहितवर्षाधिनपूर्वकालरूप साध्य को म्यापकता का ज्ञान हो सकने से राशिविशेषावनिछ भरविपूर्वकन्न उपाधि हो सकता है । किन्तु मध्यवाहितसंसारपूर्वकस्व में प्रध्यवाहितबहोरात्रपूर्वकस्व की व्यापकता का पाहक कोई तक नहीं है। पर्यात किसी ग्रहोरात्र के पूर्व में अहोरात्र माना जाय और संसार न माना जाय तो इसमें कोई भापति नहीं हो सकती। मतः पम्पबाहितबहोरात्रपूर्वकस्व माहितसंसारपूर्वपरव के बिना भी हो सकता है इसलिये अध्यक्षिप्त संसारपूर्वकत्व में प्रत्यहित महोरात्रपूर्वकत्व को प्यापकता काजाम हो सकने से अव्यवहितसंसारपुवकरण उपाधि नहीं हो सकता ।अतः अहोरात्रत्व में मध्यवहिलाहोरात्रपूर्वकत्व का व्याप्तिशाम होने में कोई बाधा न होने से पहोरावस्व हेतु से समस्त अहोरात्र में प्रव्यवहितम्रहोरात्रपूर्वका का सामन कर प्रलय का खण्डन किया जा सकता है।
प्रलय का खण्डन एक मोर मी अनुमान से हो सकता है। वह है-संपूर्ण काल में भोग्य पवाओं के प्रतिस्व का अनुमान । जैसे कालः भोग्यवान कालत्वात अर्थात् संपूर्णकाल भोग्यपदार्थ का प्राश्रय है, क्योंकि वह काल है, जो भी काल झोता है वह भोग्यपदार्थ का माश्रय होता है जसे सृष्टिकाल' । इस अनुमान का फल यह होगा कि भोग्यपदार्थ से शूग्य कोई काम नहीं माना जा सकता। प्रलयकाल भोग्यपदार्थ से शून्य माना जाता है, सानुमान के Exisa ही विहीं सका।
[एकसाथ समस्त कर्म का वृत्तिनिरोध प्रशक्य ] प्रलय की सिद्धि में मोर मी एक बाधा है और वह यह है कि कर्म की फलप्रवृत्तियों का एक काल में सर्वथा निरोध नहीं हो सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रलय तभी हो सकता है जब समस्त जीपों के समस्त कर्मों को फलोम्मुख पृत्तियों का फिसी एक काल में संपूर्ण निरोध हो जाय, क्योंकि जब समस्त जीवों के सभी कर्म अपना फल देने के प्रति उदासीन हो जायेंगे तो किसी भी जन्म द्रव्य की कोई प्रावश्यकता न रह जायगी । क्योंकि जन्य वय कमो का पल प्रदान करने में कमी के द्वार होते है और जब कमो को फस वेना ही नहीं है उस समय द्वारभूत पवाया की कोई मावश्यकता मही रह जाती। अतः संपूर्ण जन्यद्रव्यों का प्रभाव हो जाने से वह काल प्रलयकाल हो जाता है. जिस काल में कोई जन्यष्य न रहे उसी काल को प्रलयकाल कहा जाता है। किन्तु समस्त जीवों के समस्त कर्मों का संपूर्ण वृत्तिनिरोथ एककाल में नहीं हो सकता, क्योंकि जोख के कर्म विषमविपाकी होने से प्रर्यात् परस्परविरोधी फलों के जनक होने से नियत समय में ही फलप्रद न होकर भिन्न भिन्न समयों में किसी न किसी फल के जनक होते है।
यदि यह कहा जाय कि-जैसे मुक्ति के समय साहस्रों प्राणियों के कर्मों का प्रतिनिरोष हक साप हो जाता है-इसी प्रकार कोई ऐसा मो काल हो सकता है जिसमें समस्त जोत्रों के समस्त को का संपूर्ण वृत्ति-निरोध हो जाप और एसा जो काल होगा उसो को प्रलयकाल कहा जायेगा - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सुषुप्ति में जो सहस्रों प्राणियों के कर्म का एक साथ संपूर्ण वृत्तिनिरोध होता है वह वर्शनावरण रूपमाष्ट के कारण होता है अमर्मात् जिन प्राणियों का दर्शनावरणरूप प्ररष्ट जब जाप्रप्त होता है तब अन्य कर्मों को वृत्तियों का प्रतिरोध हो जाता है क्योंकि इह पय कर्मों से अलवान होता है और बलवान अहष्ट से बुधल प्रहाट के वृत्ति का प्रतिरोध इपितसंगत है किन्तु ऐसा कोई प्रष्ट प्रमाणिक महीं हैं जिससे समस्त जीवों के समस्त कर्मों का वृत्तिगेध हो सके प्रा: प्रलय की कल्पना ग्यायसंगत नहीं हो सकती और मवि तमस्त जाबों में समस्त कर्मों का प्रतिरोध प्रकारणही