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१०० टीका दिदीविवेचना ]
महोरात्र नहीं माना जा सकता और यह तभी हो सकता है जब महारात्र की परंपरा प्रशि बनी रहे और वह सभी बनी रहती है जब ब्रह्माण्ड का नाश न हो। अतः इस अनुमान से ब्रह्मा के नाश का मनुमान शषित हो जाता है। इसलिए भाषयाऽसिद्धि के कारण ब्रह्माण्ड नाशपक्षक अनुमान का होना सर्वधा मसंभव है।
[ अव्यवहितसंसारपूर्वकरण उपाधिको शंका ]
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यदि यह कहा जाय कि जैसे वर्षानित्य हेतु से प्रथम कहे जाने वाले वर्षावन में प्र वति दिन कर का साधन करने पर 'राशिविशेष में रविपूर्वकत्वरूप उपाधि होने से वर्षादिनरव में प्रतिवर्षातिपूर्वकत्व को ध्याति नहीं होती। उसी प्रकार महोरात्रस्थ हेतु से प्रथम कहे जाने वाले अहोरात्र में व्यवहितमहोरात्र पूर्वकरण का साधन करने पर भी मध्यवहित संसारपूर्वक स्वरूप उपाधि होने से अहोरात्रश्व में मवहितबहोरात्रपूर्वकत्व की व्याप्ति नहीं हो सकती यह है कि राशिविशेष (संभवत: सिंहराशि) से सूर्य के सम्बन्ध के साथ मर्यादिन का प्रारम्भ होता है । श्रत एव प्रथम वर्षावित के पूर्व रवि राशिविशेष से सम्बद्ध नहीं होता। अतः राशिविशेषाव छत्र रविपूर्वकरण प्रायमविन में वर्षादिनश्वरूप साधन का अध्यापक होता है और द्वितीय-तृतीयादि वर्षावन में प्रयहित वर्षापूर्वक तथा राशिविशेषावच्छिन पूर्वक दोनों के रहने से राशिविशेषपूर्वक पतिवर्षाविनपूर्वकःस्वरूप साध्य का व्यापक होता है। इसलिए बनिपूर्वकत्व की व्याप्ति नहीं होती क्योंकि वर्षाविनश्य भव्यवहितयविश के व्यापक राशिविशेषा व निरविपूर्वकत्व का व्यभिचारी होने से अव्यवहितवनिकस्व का भी व्यभिचारी हो जाता है क्योंकि व्यापक का व्यभिचार व्याप्य व्यभिचार से नियत होता है। इसी प्रकार जिम प्रहोरात्रों में श्रव्यवहित महोरात्र पूर्वकरण सर्वसम्मत है उनमें मव्यवहितसंसार पूर्वकस्व है क्योकि उन अहोरात्रों के पूर्व अहोरात्र विद्यमान है और महोरात्र संसार रहने पर हो होता है। अतः उस महोरात्रों में प्रध्यक्ष हितसंसारपूर्वकत्व का होना प्रतिवार्य है प्रतः सव्यवहिल संसारपूर्वकत्व अव्यवहितमहोरात्रवंक्रत्वरूप साध्य का व्यापक होता है। ग्रहोरात्रस्वरूप साधन अभिन ब्रह्मा के आद्य महोरात्र में जो है किन्तु उसके पूर्व संसार न होने से उसमें अव्यवहित संसारपूर्वक्र नहीं है, अत एव प्रत्यवति संसारपूर्वकश्व महोरात्रत्वरूप साधन का अव्यापक है। इसलिए अन्यतिमी रात्रपूर्वकरम के व्यापक व्यवसंसारपूर्वकस्म का व्यभिचारी हो जाने के कारण महो शव साधन प्रव्यवहितमही राजपूर्वक स्वरूप साध्य का व्यभिचारी हो जायगा । मतः अहोरात्र स्वहेतु से समस्त ग्रहोरात्र में मध्यवहितअहोरात्र का अनुमान करके प्रलय का खण्डन महाँ किया जा सकता ।
पूर्व
[ उपाधिको शंका तर्क शून्य है ]
किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है, राशि विशेष वर्षाffan का कारण होता है । प्रत: एम राषि के साथ सूर्य का सम्बन्ध और वर्षादिन की एक साथ प्रवृत्ति होती है। इसलिये मि वर्षाचिन राशिविशेषाव झिरविपूर्वक हो जाता है। यदि किसी प्रश्यम हिलवर्षाविनपूर्वक बिन को राशिविशेषारिविपूर्वक न माना जायना तो उस वर्षा दिन के मव्यवहित पूर्ववर्ती वर्षानि राशिविशेष से अव नहीं है यह मानना होगा चोर यह तब होगा जब उस वर्चायत के पूर्व राशिविशेष का प्रवेश न हो। और ऐसा मानने पर वर्षावन के प्रति राशिविशेष को कारणता का मङ्ग