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________________ ** प्रस्तावना * श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः समग्र विश्व को जलाशय की उपमा दी जाय तो यह निस्संदेह कहा जा सकता है नवर्यान सीमा वृद्धि करने वाला कमल है जो अहिंस तुस्य मुमुक्षु वर्ग की निरंतर उपासना का विषय बना रहता है और योगिवृष्य का मनोमधुकर रात-दिन जहां लीन रहता है। कमल की पडियां जितनी मनोहर होती है, जैन दर्शन के सिद्धान्त उनसे भी बहुगुणित सत्य को मुनि ने सुवासित और स्वाद्वाब की मनोहर आकृति से प्रति होने से किसी भी निर्मल बुद्धि अध्येता के लिये सदा सर्वदा विनते रहे हैं। जैन और जैनेनर दर्धन ] जैसे एक ही लता पर सुमन भी बोल उठते है और पसे भी उसी प्रकार जिन सिसारसों की मी पष्ट जैम वर्शन की मारत चुनी हुई है उन्हीं सिद्धान्तों में से किसी एक या कोर को पकड कर और अन्य का परित्याग कर कुछ अपनी ओर से भी ओड कर जनेतर दर्शनों की भी अपनी अपनी इमारत चुन ली गयी है और यही कारण है अन्य सभी दर्शनों के सिद्धान्तों में परस्पर वधस्य होने पर भी जंन घर्शन के साथ उनका कुछ न कुछ अंग में साम्य बना रहता है। आशिक साम्य होने पर भी दूसरे अनेक अंगा में उनका अत्यधिक बंद हो जाने के कारण हो जैन दर्शन और बनेसर दर्शन के मध्य महवस्तर बन जाता है। ( अन्य रचना का उद्देश) आचार्य श्री हरभरि महाराज ने शास्त्रवास समुचय प्रत्य के रूप में एक ऐसे से की रचना की है जिसके माध्यम से जंतर दर्शन के विद्वान अपने दर्शन कर अभि होने पर स से जनवन को सिद्धान्त भूमि पर आकर यहां बहती सरप को सरिता के जल में न कर सके। ऐसी पवित्र भावना से रखे गये इस ग्रन्थ में माचाभी ने अनेन दर्शनों के सिद्धान्तों का प्रामाणिक निरूपण के साथ जैनवर्शम के मौलिक सिद्धान्तों का प्रमाणिक परिचय वे कर जिस ढंग से दर्शनों के सिद्धान्तों कान के साथ समन्वय सम्भावित है यह प्राञ्जल और वयंगम है जो सत्यताओं के लिये अवयमेव उत्सव तुल्य है। raft इस प्रत्य का उद्देश्य मुख्य रूप से जनेतर दर्शनों का खंडन और अनवन का मण्डल हो रहा है किन्तु अन्य दर्शनों के खण्डन करते समय प्राचार्य श्री ने तर्क र युक्तियों का जिस ढंग से प्रतिपावन किया है उससे यह सहज पता चल सकता है कि यह खंडन-मंडन की प्रवृति स्वदर्शनग और पर बर्शन द्वेष सूक नहीं है किन्तु शुद्ध व अन्वेषणमूलक है । इस प्रभ्य के प्रथम स्तंबंक में प्रारम्भ में मोक्षायों के लिये उपयोगी भूमिका बताया गया है और बाद में अन्य अभ्यवनों के शास्त्र-सिद्धान्तों की समीक्षा और आलोचना का उपक्रम किया गया है। उसमें सबसे पहले मोक्ष और मोक्षोपयोगी सामना का ही विशेषी चाक-माहिक सिद्धान्तों का सविस्तर प्रतिकार किया गया है।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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