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________________ स्था का टीका और हिन्दी विवेचना ] बाक्यादपि । वेदः पौरुषेयः, वाक्यत्वात् , भारतवत् इत्यन्वयिनः । संख्याविशेषा-थणुकपरिमाणजनिका संख्या, ततोऽपि ! 'इयं संख्या, अपेशाबुद्धिज. न्या, एकत्वाम्पसंख्यात्वाव, इत्यस्मदापेक्षायुद्धमान्यत्वादतिरिक्तापेक्षावृद्धिसिद्धौ नदाश्यतयेवरसिद्धः 1 न चाऽसिद्धिः, 'हयाकपरिमाणं संख्याजन्यम् : जन्यपरिमाणस्वात् + घटादिपरिमाणवत् । । न वा दृष्टान्तासिद्धिः, द्वि-कपालादिपरिमाणात् त्रिकालादिपटपरिमाणोस्कादिति दिग। रूप साध्य प्रसिद्ध है। किन्तु विचार करने से यह शहका उचित नहीं प्रतीत होती है क्योंकि असंसारी पुरुष अनुमान प्रमाण से सिंत हैं। जैसे-'प्रात्मत्य प्रसंसारी में विद्यमान है, क्योंकि यह जाति है ।मो मी जाति होती हैबरसंसारी में विद्यमान होती है जैसे घरव पटवमादिजाति ।' आशय यह है कि संसार का अर्थ है मिम्मामात या मिष्याशामजन्यवाप्सना प्रयवा शुभाश बन्ध । यह संसार चेतरगत होने से घट्पटावि में नहीं रह सकता । अत एव घटपटादि प्रसंसारी कहा जाता है। घटस्व-परत्व जाति प्रसंसारी घट आदि में रहती है। तो जैसे घटत्व पटस्थ जाति होने सेप्रसंसारी में विद्यमान मोती चोप्रात्मस्व-पश्यरक्षको भी जाति होने के कारण असं विद्यमान होना चाहिये। और यह सत्री हो सकता है जब किसी पुरुष को प्रसंसारी माना पयोंकि प्रात्मय पुरुष का ही धर्म है, पसंसारी घटपटावि का धर्म नहीं है । इस अनुमान से प्रसंसारी पुरुष सिद्ध है। अतः साध्याउप्रसिद्धिकी शाहका नहीं हो सकती है। (पाक्य पक्षक अनुमान] वाक्य से भी घर का अनुमान होता है और वह अनुमान प्रन्ययो होता है । जैसे, घेव पुरुष से रचित है क्योंकि वह वाक्य है। जो भी बाप होता है वह पुरुष से रचित होता है जैसे महाभारत-रामायण प्रावि । इस अनुमान में मान्यत्व हेतु है। इसलिये उसे समझ लेना प्रावश्यक है अन्यथा उस में इस आधार पर इस प्रकार के व्यगिधार को शहका हो सकती है कि कोई ऐसा मो वामय हो सकता है जो पुरुष से रचित नहीं होता।' जिज्ञासाहोती है कि चाम्य का ऐसा स्या प्रम है कि जिप्त से पुरुष से अरवित काप की संभावना न हो । उत्सर यह है कि वाक्य ऐसे पों के समूह को कहा जाता है जो पर्व परस्पर मैं साकाक्ष हो, एकदूसरे से प्रसन्न हो, योग्यार्थक हो और किसी विशिष्ट प्रर्थ का बोध कराने की ईसया से प्रयुक्त हो। तो इसप्रकार वाक्य लक्षण के गर्भ में वाक्मार्थ बोषन की इच्छा के प्रविष्ट होने से बिना पुरुष के कोई पाप नहीं हो सकता। क्योंकि विशिष्टार्थ गोषन को इच्छा पुरष में ही समय है पीर उस के बिना वाक्य की निष्पत्ति मशक्य है। (वयणकपरिमारगोत्पादकसंख्याजनक अपेक्षाबुद्धि से ईश्वरसिद्धि) संख्या विशेष से मी ईश्वर का पनुमान होता है और वह विशेष संख्या है घणुक में परिमाग को खत्पन्न करनेवालो परमाणुगत हिस्व संख्या । उस संख्या से होनेवाला मनुमान का प्रयोग इसप्रकार होता है जैसे "धणुक परिमाण की उत्पत्रिका परमाणुगत हित्वसंख्या मपेक्षावृद्धि से अन्य है,
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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