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[शा प्रा० स मुनभय स. ३. श्लोक ३
पयोंकि वह एकत्व से भिन्न संलया है। एकरण से भिन्न जो मी संख्या होती है वे सभी अपेक्षाकृति से जय होसी है जैसे वो घटो में रहने वालो नत्व संध्या 'अयमेक घटः प्रयमेक घटः' इस पेक्षाशि से उत्पन्न होता है।" इस प्रनुमान से यह सिद्ध होता है परमामों में भी 'प्रयमेकः परमाणः प्रथमेकः परमाणुः' इस प्रकार की प्रपेक्षाशी और जाम में लगे नाता बिस्द ममा परिमाण को उत्पन्न करता है। परमाणुमों में होने वाली यह अपेक्षाअदि जीवों में समय नहीं है क्योंकि जीवों को परमाणुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता । यदि अनुमान प्रावि मे परमाणुनों में अपेक्षाबुद्धि की कल्पना की जाय तो वह भी तष्टि कामारंभकाल में संभव नहीं है । वमोंकि पुष्टि के चार मकाल में जो मुघणुक उत्पन्न होगा उसमें परिमाण उत्पन्न करने के लिये उस समय परमाणु में द्वित्व को पावश्यकता होगी और उसकी उत्पत्ति के लिये उसी समय परमाण प्रों में अपेक्षाद्धि अपेक्षित है। और उस समय जोयों के धारीर न होने से जीवों में बुद्धि को उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। इसलिये परमाणुनों में ईश्वर की ही अपेक्षा माननी होगी। ईश्वर के बिना परमाणमों में अपेक्षापद्धि न होने से उन में द्वित्व की उत्पत्ति हो सकेगी और विश्व के प्रभाव में द्वमणक में परिमाण न उत्पत्र हो सकेगा।
[सुभगक परिमाण में संग्याजन्यत्य पर प्राशंका] इस अनुमान में यह शङ्का हो सकती है- यकपरिमाण के संख्या के जन्यस्व में कोई प्रम ण न होने से दुचणुकपरिमारणजनक परमाणगानव संख्या रूप पक्ष प्रसिद्ध है'-किन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि अनुमान से उमत संख्या सिद्ध है अंसे घणूक का परिमाण संख्यामन्य है, क्योंकि यह अन्परिमाण है । जो अन्य परिमाण होता है यह संख्या से जन्य होता है जैसे घटावि का परिमाण । यवि यज्ञकहा जाय-"इस प्रमुमान में हटान्त प्रसिद्ध है क्योंकि घट प्रादि का परिमागा कराल प्रावि के परिमारण से उत्पन होने के कारण संख्याजन्य नहीं होता-" तो यह ठीक नहीं है, बोंकि परिमारगजन्य परिमाग को भो संझ्याजन्य मानना प्रावश्यक है । अन्यथा समान परिमाणवाले दो कपालों से उत्पन्न होने वाले घर के परिमाण से समान परिमारण वाले तीन फपालों से उत्पन्न होने वाले घटका परिमाण अधिक न हो सकेगा। क्योंकि दोनों घों के परिमाण को उत्पत्र करने वाले कपाल परिमाण समान ही है। और जब परिमाणको मण्णाजन्म माना जाएगा तो पूर्वघट का परिमाण कपालगत द्विस्व संख्या से उत्पन्न होगा और पसरा घटकपालगत घिस्य संख्या से उत्पन होगा। त्रिस्व संख्या विश्व संख्या से बडी होती है। इसलिये पित्व संख्या से उत्पन्न होनेवाले द्वितीयघट के परिमारण का जिस्वसंख्या में उत्पन्न होनेवाले पूर्वघट के परिमारण की अपेक्षा अधिक होला युक्तिसङ्गत हो सकता है।
इस प्रसङ्ग में यह शङ्का हो सकती है-'सुपणुकपरिमाण संख्याजन्यम्' इस अनुमान में पक्ष प्रसिद्ध है क्योंकि घणुक के परिमारण होने में कोई प्रमाण नहीं है। परन्तु कित्रित विचार करने से यह शङ्का मिरस्त हो जाती है क्योंकि पाक में परिमाण और उस परिमाण में जन्यता दोनों ही मनुमान प्रमाण से सिद्ध है जैसे 'बघणक परिमाणवत् वध्यत्वात् और धरणकपरिमाणं जम्मं जन्पद्रव्यपरिमाणस्वार' प्रचणुक में अन्यत्रव्यत्य के प्रसिद्धि की काया नहीं की जा सकती क्योंकि वषणुक जन्यवृष्यं सावयषावात' इस अनुमान से जम्यवघरव सिद्ध है। उधणुक में सावयवत्व की प्रसिद्धि की भी शक नहीं की जा सकती क्योंकि यह मी घणुकं साबय प्रत्यक्षद्रव्याभपत्वात् कपालाविवर' इत्मावि अनुमान से सिद्ध है।