________________
स्या ८० टीका हिन्दी विवेचन]
[ २७
__अथवा, कार्यवान्पयं वेदे यस्य तन , स एवेश्वरः । आयोजन महारूषा, 'वेदाः फेनचिद् व्याख्याताः, महाजनपरिंगटीतवाक्यत्यान् । अव्याख्यातरवे तदानवगमेग्ननुष्ठानापः, एकदेशशिनोऽस्मदादश्च व्याख्यायामविश्वासः इति नव्याख्य येश्वरसिद्धिः । धृतिर्धारण मेधारूपज्ञानम् , आदिपदायोंऽनुष्ठानम् ततोऽपि । 'वेदा वेदविषयकजन्यधारणान्यधारणाविषयाः, अतिवाक्यत्वान् । लौकिकवाक्ययन । यागादिकं यागादिविषयकजन्यज्ञानाम्यज्ञानवदनुष्ठितम् , अनुहिनन्यान् गमनवत' इनि प्रयोगः । पदं प्रणघेश्वदिपदम् , नसार्थक्यात स्वतन्त्रोच्चारयित. शयन 'शुन्यादिस्थाऽहंपदाद् वा । न घेश्यरादिपदम्य म्यपरना,
"सर्वज्ञता तृतिरनादियोधः स्वतन्त्रता नित्यमनुप्रशक्तिः । अनन्तशक्तिक विमोर्विधिज्ञाः 'पदन्तर छुगाणि माहेश्वरस्य ॥ 1 ॥
इत्यादिवाक्यशेषेण 'ईश्वरमपानी' इत्यादिविधिम्थेश्वगदिपदविनग्रहात् , यशा ययादिपदस्य "वमन्ते सर्वसम्यानां." इत्यादिवास्यशेषाचनक्तिग्रहेण म फगवादिपरना।
['कार्यायोजन' कारिका की अन्य प्रकार से योजना] कार्यापोजन त्याधि कारिका से बलर अनुमान करने का दूसरा भी प्रकार चित होता है जैसे कार्य का अर्थ है तात्पर्य । उससे ईश्वर का अनुमान इस रूप से हो सकता है-'वेदः सतास्पयंक: (अर्थातः प्रविशेषयोधनेवाप्रयुक्तः, प्रविणेषशोधकशब्बरवात आधुनिकशाम्दया ।' बस अनुमान से वेद का अर्थविशेष में तात्पर्य सिम होता है । तात्पर्य इच्छारण होता है प्रत एव वह किसी माश्रय के बिना नहीं रह सकता । प्रत: उस का कोई माश्रय मानना प्रायश्यक है। जीव उस तात्पर्य का प्राश्रय नहीं हो सकला.क्योंकि या वेब का प्राय वक्ता नहीं है। जिस शस्त्र का प्राधवक्ता होता है वह शम्द उसी के तात्पर्य से प्रयुक्त होता है प्रतः उस तात्पर्य के प्राश्रय रूप में ईश्वर का स्वीकार पावश्यक है।
विद को यथार्थव्याख्या ईश्वर प्रयुक्त है। प्रामोजन का अर्थ है यथार्थव्याल्या । उस से भी ईश्वरानुमान होता है। असे वेद किसी पुरुष से ग्याल्पात है क्योंकि वह महाजन से परिगहीत वाक्य है । भ्याल्यात होने का अर्थ है मुगम पायों से मर्थ का बोपन होना या प्रर्ष का बोषित होना । और महाजनपरिगृहीत होने का अर्थ है महाजनों द्वारा पढ़ा जाना, पर्यशान प्राप्त करना, पौर जात अर्ष का अनुष्ठान या धर्णन करना । महाजन का अर्थ है सत् मोर असत की परीक्षा कर के सत् का प्रण और प्रसत् का परित्याग करने की प्रवृत्ति से संपन्न होना । यदि वेवों को व्याख्या न होती तो वेदार्थ का जान न होता और बेवार्थ के
[1] "पिताम्य जगतो माता धान पितामहः[भ.गी. १] त्यासी । [२] पारमानि' इत्यस्यत्र पम्धे पाठः। [३] 'जायते पत्रमाननमा मोषमानाश्च तिष्ठमिता यषा कणीशशालिन.' इति रोपं पापम् । आदिना 'पराई गायोऽनुपास्ति' इत्यादि।